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रचना, उसकी वृद्धि, ह्रास आदि अनेक विषयों पर शरीरशास्त्री विचार करता है। कर्मशास्त्र में भी प्रासंगिक रूप से इन्हीं शरीर सम्बन्धी विषयों का वर्णन प्राप्त होता है। अति प्राचीन कर्म-शास्त्र में भी शरीर की बनावट, उसके प्रकार, उसकी दृढ़ता और उसके कारणभूत तत्त्वों पर जो विचार उपलब्ध होते हैं, वे इस शास्त्र की महत्ता के अभिव्यञ्जक हैं। शरीरविज्ञान एवं कर्मवाद का संयुक्त शिक्षण एवं शोध इस सन्दर्भ में नवीन तथ्यों को प्रस्तुत कर सकता है। वार्तमानिक परिप्रेक्ष्य में वैसा उपक्रम अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
शरीर से सम्बन्धित सभी पहलुओं पर कार्मिक दृष्टिकोण से व्याख्या की जा सकती है किन्तु प्रस्तुत निबन्ध में उसके कुछेक पहलुओं पर ही विचार किया जा रहा है। रोग-प्रतिरोध क्षमता एवं कर्म
रोग-प्रतिरोध क्षमता शरीर की एक रक्षात्मक व्यवस्था है, जो रोगजनक तत्त्वों से शरीर की रक्षा करती है। शरीर में रोगों से अपनी रक्षा करने की बड़ी शक्ति है। इसके लिए उसमें अनेक साधन हैं। इन्हीं साधनों के कारण रोगों से शरीर की रक्षा होती रहती है। शरीर रोगग्रस्त तभी होता है, जब रक्षात्मक प्रणाली निर्बल बन जाती है। कर्म-सिद्धान्त की भाषा में जब सातावेदनीय कर्म का उदय होता है तब रोग प्रतिरोधक क्षमता सबल होती है। किसी भी परिस्थिति में वह असमर्थ नहीं बनती। यदि असातावेदनीय कर्म का उदय हो तो रोग-प्रतिरोधात्मक क्षमता निर्बल बन जायेगी। वैसी स्थिति में शरीर में रोग-उत्पत्ति शीघ्रता से होगी। विज्ञान यह व्याख्या तो कर सकता है कि शरीर में रोग-प्रतिरोधक शक्ति होती है। वह शक्ति कभी सबल बन जाती है, कभी निर्बल बन जाती है। वह श्वेत रक्त कण की जीवाणु भक्षण शक्ति है, किन्तु शरीर में वह क्यों होती है? सबल-निर्बल क्यों होती है? इसका समाधान विज्ञान के पास नहीं है। यह समाधान कर्म-सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। रोग-प्रतिरोधात्मक शक्ति की सबलता एवं निर्बलता वेदनीय-कर्म से साता एवं असाता के उदय पर ही निर्भर करती है। अन्तःस्रावी ग्रन्थियां एवं कर्म
प्राचीन शरीर-विशेषज्ञ हृदय, स्नायु-संस्थान, गुर्दा आदि शरीर के प्रमुख अवयवों को शरीर का संचालक मानते थे किन्तु वर्तमान शरीर-शास्त्र की खोजों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि मूल कारण इससे भी बहुत आगे है। वर्तमान
व्रात्य दर्शन - १०१
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