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इन पांच फलों में से एक भी फल न मिले तो मानना चाहिए- ध्यान का लेश भी मुझमें नहीं आया है। अगर इनका विकास हो तो मानना चाहिए - मैंने ध्यान की साधना की है, ध्यान को समझा है, ध्यान जीवन में उतरा है। ये शुद्धियां विकसित नहीं हैं तो मानना चाहिए - आप ध्यान की दहलीज तक नहीं पहुंचे हैं, दरवाजा खुला नहीं है, बंद ही पड़ा है । ध्यान तक पहुंचने के लिए पुनः चाबी को घुमाना होगा। यह कसौटी आपके सामने प्रस्तुत है । आप स्वयं अपने आप को देखें- भीतर में कितना परिवर्तन आया है और व्यवहार में कितना परिवर्तन आया है । परिवर्तन दोनों ओर से आता है। अगर आप यह सोचें - भीतर में बहुत परिवर्तन आ गया, बड़ी शान्ति रहती है, ध्यान करता हूं तब ऐसा लगता है - जैसे कोई अमृत पी लिया है, किन्तु यदि बाहर में विष ही विष घोल हो रहे हैं तो ध्यान की सार्थकता संदिग्ध है। भीतर में अमृत है तो बाहर में भी अमृत आना चाहिए । हम ध्यान को भी धोखा न बनाएं, विडंबना न बनाएं। जैसा आजकल हो रहा है कि बस ध्यान करो फिर कोई चिन्ता नहीं है, चाहे नशा करो, शराब पियो, मुक्त यौनाचार करो, जश्न मनाओ, गलत साधनों का प्रयोग करो, तुम्हारा सब कुछ ठीक हो जाएगा । यह कैसी विडंबना है ? हम ध्यान को बिल्कुल पवित्र रखें, इस धोखे में कभी न जाएं। जो इस धोखे में चले हैं, उन्होंने ध्यान को भी कलंकित किया है और धर्म को भी एक विडंबना की स्थिति में पहुंचा दिया है । हम बहुत पवित्रता के साथ यह अनुभव करें - ध्यान की क्या मर्यादा है ? ध्यान का क्या प्रतिफल है ? इस दृष्टि से भीतर और बाहर - दोनों के प्रति जागरूकता बढ़े। इस उभयमुखी. जागरूकता में ही जीवन व्यवहार की पवित्रता का रहस्य छिपा है ।
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जागरूकता और जीवन व्यवहार / ८५
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