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यह हमारा सिद्धान्त ही नहीं है। प्रश्न है-उपयोगिता और दुरुपयोगिता का। धन का जो खर्च होता है, वह उपयोगी काम में होता है अथवा दुरुपयोग में होता है। साज-सज्जा, सजावट-यह सारा दुरुपयोग है। एक बड़ा भोज किया, दस हजार आदमियों को भोज करा दिया। लगता नहीं कि उसका कोई उपयोग है। उपयोग वह है, जो समाज के लिए काम आए। जैसे चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में धन व्यय होता है तो व्यक्ति को लगता है कि यह उपयोगिता का काम है।
दुरुपयोग का निदर्शन एक व्यक्ति ने कहा-मैंने अपनी लड़की को पचास लाख का दहेज दिया। एक धनाढ्य ने कहा-मैंने अपनी लड़की को एक करोड़ का दहेज दिया। इस पचास लाख और एक करोड़ के दहेज ने पूरे समाज को समस्या में डाल दिया। दूसरा व्यक्ति सोचता है-करोड़ या पचास लाख रुपये देने जितनी मेरी हैसियत नहीं है तो कम से कम पच्चीस लाख का दहेज तो मैं भी दूं। तीसरा सोचता है-कम से कम पांच लाख का तो मैं भी दूं। अगर इतना दहेज नहीं मिलता है तो जो ससुराल वाले हैं, उनके मन में आता है-उसने तो इतना दहेज दिया और इन्होंने तो कुछ दिया ही नहीं। वे बेचारी लड़की को ताने देते हैं, सताते हैं, दो पाटों के बीच में वह निर्दोष लड़की पीसी जाती है या जलाई जाती है अथवा वह स्वयं आत्महत्या कर लेती है। यह अर्थ के दुरुपयोग का चक्र है। इसने समाज को बहुत जर्जर बना डाला है। ऐसे समाज को धार्मिक कैसे कहें ? धार्मिक समाज का तो यह लक्षण ही नहीं है। आज यह नहीं कहा जा सकता कि हिन्दुस्तान का समाज बहुत धार्मिक समाज है, उच्च कोटि का समाज है। अनेक विद्वान् पूछते हैं- 'हिन्दुस्तान बड़ा आध्यात्मिक और धार्मिक देश है' मैं उत्तर देता हूं-यह कभी रहा होगा। हम इतिहास की बात भले करें, वर्तमान में ऐसा नहीं लगता। यह तो हो सकता है कि हिन्दुस्तान के पास आज भी धर्म की विरासत है किन्तु व्यवहार में धर्म है, यह कहना कठिन है। ___ ध्यान करने वाले व्यक्ति में आर्थिक शुद्धि का विकास अवश्य होना चाहिए। हमारे पुराने आचार्यों ने एक परिभाषा बना दी-अर्थशुचिः शुचि-जो अर्थ में पवित्र है, वह आदमी पवित्र है। जो अर्थ में पवित्र नहीं है, घोटाला
जागरूकता और जीवन व्यवहार / ८१
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