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हुए हैं, उनके प्रति सहयोग और सहानुभूति की भावना जाग जाती है। वह अकेला ही नहीं खाना चाहता। उसमें एक तादात्म्य की-सी बात आने लग जाती है। दूसरे का कष्ट देखना उसके लिए सह्य नहीं होता।
एक ध्यानी व्यक्ति अपनी सुविधा के लिए अधिक संग्रह नहीं कर सकता। वह भोग और उपभोग की सीमा करता है- 'मैं अपने जीवन में इतने से ज्यादा अर्थ का प्रयोग नहीं करूंगा। इतने से ज्यादा पदार्थों का प्रयोग नहीं करूंगा। व्यक्तिगत जीवन को संयत रखूगा।' आजकल कुछ स्थितियां देखते हैं, सुनते हैं कि लोग बुरे साधनों से धन कमाते हैं, फिर अपनी सुख-सुविधा, बड़प्पन और साज-सज्जा के लिए बीस-तीस लाख रुपये तक खर्च कर देते हैं।
अर्थहीन मनोवृत्ति एक भाई ने कहा-अभी मैंने कमरों और हॉल को फर्निस्ड किया है, खूब सजाया है और उस सजावट में मेरे पचास लाख रुपये खर्चे हो गए। तत्काल मेरे मन में एक विचार आया-एक आदमी साज-सज्जा और बड़प्पन के लिए पचास लाख रुपये लगा देता है, जिनका कोई उपयोग नहीं है, प्रतिलाभ नहीं है। व्यापार या उद्योग में लगाता है तो सोचा जा सकता है कि कोई प्रतिलाभ मिलेगा। साज-सज्जा केवल इसलिए है कि लोग उसे देखकर कहेंगे-मकान कितना बढ़िया सजाया हुआ है। इसके सिवाय कोई लाभ नहीं है किन्तु इस प्रकार की मनोवृत्ति चल पड़ी है। कई बार हम लोगों के साथ भी ऐसा होता है। श्रद्धालुजन हम लोगों को भी अपने घर पर आने का आग्रह करते हुए कहते हैं- 'हमारे घर को पवित्र करें। किन्तु उसके साथ वे यह दिखाना चाहते हैं कि हमारा घर इतना सजा हुआ है।' यह प्रदर्शन की जो मनोवृत्ति है, बिल्कुल अर्थहीन है। इससे सामाजिक विकास में एक अवरोध पैदा हो गया। प्रश्न है उपयोगिता का जो व्यक्ति ध्यान करने वाला है, उसमें यह बोध जागना चाहिए-क्या उपयोगी है और क्या अनुपयोगी है ? धन का व्यय होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। हम लोग इसमें विश्वास नहीं करते कि धन से धर्म होता है।
८० / विचार को बदलना सीखें
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