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'नहीं, बिल्कुल नहीं खाया। आप लोग कहते हैं कि ज्यादा द्रव्य नहीं खाने चाहिए। मैंने तो केवल एक ही द्रव्य खाया।'
'कौन-सा द्रव्य खाया ?
‘महाराज ! बादाम की कतली के सिवाय किसी द्रव्य को छुआ ही नहीं।'
ध्यान और व्यवहार जहां सामान्य सभ्यता की बात यह है-एक-दो पीस ले लेना चाहिए वहां उसने दो सौ बादाम की कतली खा ली, अन्य किसी द्रव्य का स्पर्श ही नहीं किया। साधक का व्यवहार ऐसा नहीं हो सकता। वह संयम का मूल्य जानता है। उसमें यह मर्यादा और विवेक है-कब, कितना, कैसे करना चाहिए ? इन्द्रियों की लोलपता और आकर्षण उसके आड़े नहीं आएंगे। यह आहार-शुद्धि चर्या की शुद्धि है। मैं यह मानता हूं-ध्यान करने वाला व्यक्ति पहले नम्बर का सभ्य होगा, शिष्ट और व्यवहारकुशल होगा। अगर वह ऐसा नहीं होता है, तो मान लेना चाहिए-ध्यान हुआ नहीं है। जब हमारे भीतर के भाव बदलते हैं तब बाहर का व्यवहार भी बदलना चाहिए। यदि ध्यान और व्यवहार अलग-अलग हो जाए, दोनों में कोई ताल-मेल ही नहीं रहे तो एक साधक की भी आज के धार्मिक जैसी स्थिति हो जाए। आज के तथाकथित धार्मिक के व्यवहार को देखकर कोई नहीं कह सकता कि यह धार्मिक व्यक्ति है। यदि ध्यान करने वाला न बदले तो वह ध्यानी भी तथाकथित धार्मिक जैसा बन जाएगा। ऐसा नहीं होना चाहिए।
क्रूर व्यवहार न करे ध्यान के साथ व्यवहार में परिवर्तन जरूरी है। एक व्यक्ति ध्यान करता है
और अर्थ की शुद्धि के प्रति जागरूक नहीं है तो मानना चाहिए-ध्यान का व्यवहार में अवतरण नहीं हुआ। आर्थिक शुद्धि की पहली मर्यादा है-व्यक्ति किसी के प्रति क्रूर व्यवहार न करे। एक साधक अर्जन की शुद्धि के प्रति जागरूक होगा। अर्जन में क्रूरता और कठोरता नहीं होगी। मालिक कां मजदूर के प्रति कठोर और क्रूर व्यवहार नहीं होगा। अपने कर्मचारी के प्रति भी करुणा पूर्ण व्यवहार न हो तो प्रतिक्रिया हो सकती है।
७८ / विचार को बदलना सीखें
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