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कौन हो, तो उत्तर यही होगा- 'मैं सुराना हूं, दूगड़ हूं, सेठिया हूं, सकलेचा हूं, लूणावत हूं, पाली का प्रवासी हूं, मद्रास में रहने वाला हूं अथवा शिक्षक हूं, सरकारी-कर्मचारी हूं, व्यवसायी हूं। हमारा सारा का सारा परिचय बाहर से जुड़ा हुआ है। मैं आत्मा हूं, चेतन हूं-यह उत्तर तो हजार में से संभवतः एक का भी नहीं मिलेगा। यह स्वाभाविक भी है। क्योंकि कभी अपने को समझने का, जानने का प्रयत्न ही नहीं किया गया। क्या चौबीस घण्टे में आधा घण्टा या बीस मिनट भी आदमी आंख मूंद कर अपने भीतर झांक कर यह देखने का प्रयत्न करता है कि मैं कौन हूं ? औरों की बात छोड़ दें, आज के धार्मिक लोग भी क्या ऐसा करते हैं ? धार्मिकों में भी कोई वैष्णव है, कोई सनातनी है. कोई और कछ है। सबके पीछे धर्म का कोई न कोई लेबल या उपाधि लगी हुई है। क्या वे कभी आत्मनिरीक्षण करते हैं ? पता नहीं कैसे कह दिया गया-कलिकाल में केवल नाम ही सहारा है। जिन लोगों ने इस सूत्र को पकड़ लिया, वे और कुछ करने की जरूरत ही नहीं समझते। वे सोचते हैं-नाम जपते रहो, मन चाहे सारे जहां का चक्कर लगाता रहे।
झलक भीतर की वस्तुतः अपने आपको जानने और समझने का प्रयत्न बहुत कम होता है। बाहर को देखेंगे तो आंखें खुली रहेंगी। भीतर देखने का प्रयत्न करेंगे तो आंखें बन्द करनी होंगी। जिस व्यक्ति ने इन्द्रियों को बंद करना नहीं सीखा, वह कैसे धार्मिक हो सकता है ? यह समझने में भी कठिनाई होती है। इन्द्रियों का काम धर्म को समझना नहीं है। जीभ का काम है सस्वाद भोजन का रसास्वादन करना। नुकसान कितना ही हो, स्वाद की चीज है तो भरपेट खाओ। छोटे बच्चों की बात जाने दें, वे भोले हैं, अनजान हैं। बड़े और बुजर्ग लोग भी जीभ के स्वाद के लिए क्या-क्या नहीं खाते ? स्वास्थ्य का नियम है-शरीर के तापमान से ठंडी या गर्म चीज नहीं खानी चाहिए, पर खाने-पीने वाले लोग इस नियम का कहां तक पालन करते हैं ? चाय पीने वाले कुछ लोग इतनी गर्म चाय पीते हैं कि चाय के बर्तन को हाथ से नहीं उठा पाते हैं तो संडासी से पकड़ कर मुंह तक पहुंचाते हैं। बड़े-बड़े लोग ऐसा करते हैं। क्यों करते हैं ? इसलिए कि इन्द्रियों के जगत् में जीते हैं
दूरदर्शन और अन्तर्दर्शन । ७१
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