SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्न्तदर्शन के लिए आंखों को बन्द करना होता है। योग की भाषा में इन्द्रियों का प्रत्याहार करना होता है। महावीर की भाषा में यह इन्द्रियप्रतिसंलीनता है। इन्द्रियों को बाहर से भीतर की ओर मोड़ कर, मन के सारे दरवाजों, खिड़कियों को बन्द करना होता है, बाहर से सारा संपर्क विच्छेद करना होता है। प्रेक्षाध्यान का एक प्रयोग है- “सर्वेन्द्रिय संयम मुद्रा'-कान बन्द, आंख बन्द, नाक बन्द, मुंह बन्द। दो मिनट के लिए भी जो इस मुद्रा में ध्यान कर लेता है, वह बाहरी जगत से एकदम कट जाता है। केवल दो मिनट में वह दो घंटे के विश्राम जितनी ताजगी का अनुभव करता है। वर्णान्ध बन गया है आदमी जब-जब हमारा बाहरी जगत् के साथ संपर्क टूटता है, हम एक ऐसी दुनिया में चले जाते हैं, जिसका हमें कभी अनुभव नहीं हुआ है। हम केवल एक ही दुनिया का अनुभव करते-करते उस स्थिति में चले गये, जिसे वर्णान्धता की स्थिति कहा जाता है। बादशाहों के जमाने में किसी को दण्ड देना होता तो उसे कोड़े नहीं लगाए जाते थे। उसका एक ही तरीका था-अपराधी को उस कालकोठरी में बन्द कर दिया जाता, जो एक ही रंग की होती थी। एक ही रंग को देखते-देखते वह व्यक्ति एक दिन अंधा हो जाता। वैसी ही वर्णान्धता की स्थिति शायद आज पैदा हो गयी है। केवल बाहर की दुनिया को ही देखते-देखते आदमी वर्णान्ध बन गया है। अब उसे वास्तविकता दिखाई नहीं दे रही है। एक व्यक्ति चौबीस घंटे में कितने घंटे की नींद लेता है ? कोई छह घंटा सोता होगा। कोई आठ घंटा अथवा दस घंटे की नींद लेता होगा। ज्यादा से ज्यादा कोई बारह घण्टा सोता होगा। यदि चौबीस में से दस घण्टे निकाल दें तो चौदह घण्टे बचते हैं। इन चौदह घण्टों में खुली आंखों से आप किसे देखते हैं ? आंख का काम दूसरे को देखना है। अपने आपको देखना आंख का काम नहीं है। आंख से अपने शरीर को देख लेते हैं, कांच में अपना चेहरा देख लेते हैं। किन्तु यह भी दूसरे को देखना है, क्योंकि शरीर आखिर पराया ही तो है। दूसरे को देखते-देखते आदमी ऐसा बन गया है कि अपने से बड़े को देखेगा तो हीनभावना पैदा होगी। अपने से छोटे को देखेगा तो अहंकार की भावना दूरदर्शन और अन्तर्दर्शन / ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003130
Book TitleVichar ko Badalna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2005
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy