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जगत् में अपने आपको देखना कभी संभव नहीं। जब तक व्यक्ति इन्द्रिय चेतना के स्तर पर जीता रहेगा, तब तक अपने आपको देखने का प्रश्न ही नहीं उठेगा। बहुत बार इसीलिए विरोधाभास खड़ा हो जाता है कि आदमी इन्द्रिय जगत् की बात सोचता है।
__ पति ऑफिस से लौट कर घर आया, देखा-पत्नी खाट पर लेटी हई है। उसने पूछा- 'क्या हुआ ? खाना बना लिया कि नहीं ? पत्नी बोली'नहीं बनाया। सिरदर्द इतना तेज हो रहा है कि रसोई नहीं बना सकती।' पति बोला- 'दर्द था तो डॉक्टर के पास चली जाती।' वह बोली- अभी कैसे जा सकती हूं ? सरदर्द मिट जायेगा तो चली जाऊंगी।' मृग-मरीचिका है दुनिया बीमारी मिट गयी तो फिर डॉक्टर के पास जाने की जरूरत ही क्या है ? किन्तु आदमी केवल बाह्य जगत् की स्थितियों को देखता है। उसमें विपर्यास पैदा होता है, विसंगतियां पैदा होती हैं। यह विसंगति का चक्र बाहरी दुनिया में चलता है। यदि अन्तर्जगत् की बात आ जाये, इन्द्रियों से परे जाकर आदमी अपने आपको देखना शुरू करे तो उसे पता चलेगा-मैं जिस दुनिया को सच मान रहा था, यथार्थ मान रहा था, वास्तविक मान रहा था, वह एक भ्रम था, मगमरीचिका जैसा था। गरुदेव ने कच्छ की यात्रा की। वहां चलते समय हमने देखा-आगे सौ कदम दूर ऐसा दिखाई देता है कि सामने तालाब भरा है। आगे जाकर देखते हैं तो ऐसा कुछ भी नहीं मिलता। वह पानी के तालाब का आकर्षण आगे से आगे बढ़ता जाता है। प्यासा हिरण पानी के लिए तेज धूप या चांदनी रात में दौड़ लगाता रहता है, पानी की एक बूंद भी उसे नसीब नहीं होती।
बाहर से भीतर की ओर आदमी का दृष्टिकोण जैसे ही बदलता है, सम्यक् दृष्टि मिलती है, वह अपने आपको देखना शुरू करता है, दूरदर्शन का आकर्षण समाप्त हो जाता है। उसे ऐसा लगता है, जिसे मैं सच मान कर चल रहा था, वह निरी प्रवंचना थी, धोखा था। सब कुछ असत्य ही असत्य, माया ही माया, मृषा ही मृषा। सारी दृष्टियां बदल जाती हैं उस समय। कठिनाई यह है कि
६८ / विचार को बदलना सीखें
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