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की बात इन्द्रियों की उच्छृंखलता से आती है | हमारा अपनी इन्द्रियों पर संयम नहीं होता है तो दायित्वबोध कभी हो ही नहीं सकता। मैं मानता हूं-आकर्षण सामाजिक प्राणी के लिए आवश्यक और अवश्यंभावी बात हो सकती है। मनोरंजन जरूरी हो सकता है आदमी के लिए, किन्तु इसकी कोई सीमा तो होनी चाहिए। दिन भर वीडियो और सिनेमा ही देखेंगे तो अन्य काय, जो कहीं ज्यादा आवश्यक हैं, कब करेंगे ? यह इन्द्रिय का प्रबल असंयम व्यक्ति और समाज- दोनों के स्वास्थ्य के लिए बहुत खतरनाक है । इन्द्रियों की उच्छृंखलता को समाप्त किये बिना स्वास्थ्य की कल्पना नहीं की जा सकती ।
आहार
स्वास्थ्य का चौथा पहलू है - आहार | पुराने जमाने में कहावत थी - ' जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन। आज इसकी बड़ी वैज्ञानिक व्याख्याएं हुई हैं । व्यक्ति जैसा आहार करता है, वैसा ही उसके मस्तिष्क में न्यूरोट्रांसमीटर बनता है और जैसा न्यूरोट्रांसमीटर बनता है, वैसा ही उसका व्यवहार और आचरण होता है । इतना ज्ञान विकसित होने के बावजूद आहार के विषय में हमारी कोई जानकारी नहीं है । न रोटी बनाने वाले को आहार के विषय में कोई जानकारी है और न उसे खाने वाले को आहार के विषय में कोई जानकारी है। ऐसा मान रखा है कि भूख का काम है लगना और आदमी का काम है भूख लगने पर पेट को भर डालना । इससे ज्यादा भोजन के विषय में सोचने की जरूरत नहीं है । यही अस्वास्थ्य का हेतु बनता है ।
अज्ञान शिक्षाधिकारी का
स्वास्थ्य के लिए आहार की विशुद्धता पर चिंतन जरूरी है। ज्यादा चीनी खाना, ज्यादा नमक खाना, ज्यादा चटपटी चीजें खाना, ऊटपटांग चीजें खाना और ज्यादा द्रव्य खाना, बहुत सारी चीजें एक साथ खाना - ये सब बीमारी के लिए जिम्मेदार हैं । भगवान् महावीर ने कहा - 'ऊनोदरी करो, रसों का परित्याग करो।' राजस्थान के एक शिक्षाधिकारी ने बताया- 'जब मैं नाश्ता करता हूं, खाने-पीने का कोई विचार नहीं
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धर्म और स्वास्थ्य / ६१
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