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शस्त्रों का निर्माण भावना के स्तर पर हुआ है। जिसने भी डर या भय का अनुभव किया, उसने प्रतिकार स्वरूप शस्त्रों का निर्माण किया। जिस आदमी ने अणुबम बनाया, उसने भी भय के कारण बनाया। प्रस्तरयुग से लेकर अणुअस्त्रों के युग तक सारे शस्त्रों का विकास भावना के स्तर पर हुआ है। हमारा बहत बडा जगत है भावना का जगत। हम इस को ओझल कर सारी बात सोच रहे हैं और यही समस्या को जटिल बना रहा है।
विश्वशान्ति की बात एक बार छोड़ दें। पारिवारिक शान्ति की बात को भी एक बार नजरअंदाज कर दें। सबसे पहले व्यक्तिगत स्तर पर शान्ति की बात सोचें-मैंने अपनी भावनाओं का परिष्कार किया है या नहीं। अगर किया है तो आपके मन में शान्ति होगी। आपके मन में शान्ति है तो आपके परिवार में शान्ति है। सबको अभयदान मिल गया। यदि आपने अपनी भावनाओं को परिष्कार नहीं किया तो न आपके मन में शान्ति, न परिवार में शान्ति, न समाज में शान्ति और न विश्व में शान्ति। कहीं भी शान्ति नहीं रहेगी।
चिन्तन का केन्द्र बिन्दु हमारे चिन्तन का केन्द्र बिन्दु है भावना जगत् का परिष्कार । प्रेक्षाध्यान का प्रयोग केवल भावना के परिष्कार का प्रयोग है। हमारी भावनाएं किस प्रकार परिष्कृत हों ? क्रोध, अहंकार, लोभ, घृणा, भय, ईर्ष्या, कामवासना-ये कैसे आनुपातिक बन सकें, संतुलित बन सकें, इनकी उच्छृखलता कैसे कम हो, इनका जहरीलापन कैसे कम हो, कड़वाहट कैसे कम हो ? आज की सबसे बड़ी समस्या है भावनाओं का असंतुलन और भावनाओं की उच्छृखलता। लड़ाई-झगड़ा और कलह-ये सब उसी के परिणाम हैं, जो हमारे सामने आ रहे हैं।
भगवान् महावीर का एक प्रसिद्ध वचन है-'संति निव्वाणमाहियंशान्ति का अर्थ है निर्माण। मोक्ष और शान्ति दोनों एक ही बात है। चाहे शान्ति कहें या निर्वाण कहें। जिसके भावना की शान्ति हो गयी, उसका जीते जी निर्वाण हो गया। जितने भी तीर्थंकर हुए हैं और होने वाले हैं, उन सबकी आधारभूमि शान्ति ही है। किन्तु यह शान्ति कब संभव है ? इस प्रश्न को हमने गौण बना दिया है।
५२ / विचार को बदलना सीखें
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