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जाये, किन्तु मन में कभी आयेगा ही नहीं कि बीमार हो गया हूं। समस्या यही है कि शरीर की तो इतनी चिन्ता करते हैं और शरीर को चलाने वाले भावनातंत्र के प्रति हम इतने गैर जिम्मेदार हैं। हम कैसे कल्पना करें कि जीवन में शान्ति आयेगी ? कैसे परिवार और समाज में शान्ति रहेगी ?
चिन्तनीय है प्रकट होना यह सामान्य प्रश्न नहीं है। बहुत बड़ा सवाल है यह। इसकी ओर ध्यान आकर्षित होना बहुत आवश्यक है। हम केवल शारीरिक चिन्ताओं में लगे रहे तो फिर समाज जैसे चल रहा है, वैसे ही चलेगा। अपराध, चोरियां और हत्याएं सब चलेंगे। एक ओर हम भावनात्मक स्तर पर अविकसित हैं, दूसरी
ओर बुराइयों की चिन्ता भी करते हैं। समाज में आ रही बुराइयों का रोना तो सभी रोते हैं, किन्तु उसके कारणों को जानकर भी अनदेखा कर रहे हैं। होना तो यह चाहिए-जहां से ये बुराइयां आ रही हैं, वहां जाकर चिंता करें। जहां से ये बुराइयां नहीं आ रही हैं, केवल प्रकट हो रही हैं, वहां के लिए हमारी चिन्ता है। इसका मतलब यह हुआ कि प्रकट होना चिन्तनीय बात है, छिपा रहना चिंता की बात नहीं है। शरीर में कैंसर है, कोई चिन्ता नहीं, चाहे वह वर्षों तक अनजान रहे। जब प्रकट हो जाता है तब नींद उड़ जाती है, चिन्ता सिर पर सवार हो जाती है। जब तक अन्तर्ऋण भीतर में पलता रहा तब तक कुछ भी अनुभव नहीं हुआ। जैसे ही लक्षण प्रकट हो गए, मनुष्य चिन्ता से आकुल बन गया।
प्रश्न है सार्थक चिन्ता का हम चिन्ता कहां करें ? इस बिन्दु पर हमें सोचना है। आज बहुत सारे लोग विश्वशान्ति की चिन्ता करते हैं। हमारे पास आते हैं, सुझाव देते हैं-विश्वशान्ति के बारे में कुछ बोलना चाहिए, लिखना चाहिए और प्रचार करना चाहिए। यह बात तो बहुत अच्छी है, किन्तु लगता है कि यह कोई सार्थक चिन्ता नहीं है। विश्वशान्ति का प्रश्न जटिल है, किन्तु वह क्या कभी सुलझ पायेगा ? हमने विश्वशान्ति का दरवाजा ही बन्द कर रखा है। जब दरवाजा ही नहीं खुलेगा, विश्वशान्ति की बात कैसे होगी ?
एक वैद्य था। अवस्था से वृद्ध। दूसरी मंजिल पर बैठता था। जो
५० / विचार को बदलना सीखें
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