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दृष्टि से सामंजस्य नहीं रख पाते हैं तो एक प्रकार से धर्म के सामने प्रश्नचिह्न खड़ा कर देते हैं। एक भाई से मैंने पूछा- 'तुम साधुओं के पास जाते हो ? उसने कहा-'नहीं।' मैंने फिर पूछा- 'क्या धर्म के प्रति तुम्हारे मन में आस्था नहीं है ? बोला-'नहीं, आस्था तो बहुत है, किन्तु मेरे मन में एक प्रतिक्रिया है। मेरे पिता प्रतिदिन पांच-सात घंटे साधुओं के पास बिताते हैं पर घर में जितनी लड़ाई वे करते हैं, शायद कोई नहीं करता।
क्या धर्मस्थान में साधुओं के पास जाने का अर्थ लड़ाई सीखना है ? वह तो गली-मौहल्लों में सीखी जा सकती है, साधुओं के पास क्यों ? बहुत से लोगों के मन में यह प्रश्न है कि हमारे जो बड़े-बूढ़े और बुजुर्ग हैं, वे धर्म की बड़ी साधना करते हैं पर घर में उन्हें लड़ते-झगड़ते देखकर नहीं लगता कि धर्म से जीवन में कोई परिवर्तन आता है।
उत्तरदायी है लोभ और क्रोध धर्म को मानने वाले व्यक्ति भावनात्मक स्तर पर सामंजस्य नहीं बिठा पाते हैं, परस्पर में सौहार्द और सद्भावना नहीं रख पाते हैं, तो स्थिति जटिल बनी रहती है। यदि भावनात्मक स्तर पर समाज विकसित होता, व्यक्ति और परिवार विकसित होता तो कभी भी अपने हिस्से से ज्यादा पाने की कोशिश नहीं की जाती। किन्तु लोभ ऐसा करा रहा है। परिवार में या तो क्रोध के कारण स्थितियां जटिल बनती हैं या लोभ के कारण। लोभ स्वार्थ की भावना को प्रबल बनाता है। क्रोध उत्तेजना के वातावरण को प्रबल बनाता हैं। ये दोनों ही स्थितियां परिवार और व्यक्ति के जीवन में जटिलता लाती है। न क्रोध का संतुलन और न लोभ का संतुलन। हम ध्यान ही नहीं देते इन संवेगों पर। कितनी भयंकर बीमारी हैं ये दोनों किन्तु इन पर कभी हमारा ध्यान ही नहीं जाता। थोड़ा-सा बुखार होता है तो तत्काल डॉक्टर को बुला लेते हैं, थोड़ा-सा शरीर में कहीं दर्द हो जाता है तो डॉक्टर की शरण ले लेते हैं। बड़े आदमी को जुकाम और छींक आ जाने पर भी डॉक्टर को फोन कर बुला लेते हैं और शरीर का पूरा परीक्षण करवाते हैं। समाचार-पत्रों में अनेक बार ऐसी खबरें छपती हैं-अमुक राजनेता या मंत्रीजी को जुकाम हो गया इसलिए उस दिन के सारे कार्यक्रम रद्द कर दिये गये। इतनी चिन्ता है जुकाम की और क्रोध चाहे भयंकर आ जाये, लोभ चाहे असीमित हो
धर्म और शान्ति / ४६
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