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गणित की भाषा जब व्यक्ति स्वयं अशान्त होता है तब यही स्थिति बनती है। काम कम होता है और झगड़ा ज्यादा होता है। हर बात में इतना ज्यादा विवाद होता है कि काम गौण हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि व्यक्ति भावनात्मक स्तर पर विकसित नहीं है। आज यह कहने में संकोच नहीं है कि जो व्यक्ति अपने आपको बहुत विकसित और एडवांस मानते हैं, अग्रगामी और प्रगतिशील मानते हैं, वे भावना के स्तर पर शायद उतने विकसित नहीं हैं। वे बौद्धिक हैं, उनमें सोचने, समझने की क्षमता भी है, किन्तु भावना के स्तर पर वे विकसित नहीं हैं। जब तक व्यक्ति भावना के स्तर पर विकसित नहीं होता है तब तक सचमुच आधा घण्टा के स्थान पर दो घण्टे लगते हैं और शायद दस घण्टे भी लग सकते हैं। मैंने इस पर बहत सोचा, गणित लगाया-मनुष्य कितने घंटे काम करता है ? वह गणित यह है-पूरे दिन चौबीस घंटे में करने योग्य जरूरी काम चार-पांच घंटे से ज्यादा का नहीं होता। इससे ज्यादा काम किसी के पास नहीं होता। इससे ज्यादा काम वह कर भी नहीं सकता। कोई भी व्यक्ति अपनी मस्तिष्कीय शक्ति का चार-पांच घंटे से ज्यादा का उपयोग नहीं कर सकता। यदि वह ज्यादा खींचतान कर काम करता है तो वह बासी काम होगा, ताजा काम नहीं होगा। काम तो थोड़े समय का ही होता है। ज्यादा काम तो निकम्मा काम होता है। सभा-संस्था, पंचायत, गोष्ठी आदि में तो सबसे ज्यादा समय का दुरुपयोग होता है। सभा-संस्थाओं की मीटिंगों में खोदा जाता है पहाड़ और निकलती चुहिया भी नहीं है। ऐसा क्यों हो रहा है ? कारण सिर्फ यही है कि भावनात्मक स्तर पर आज भी समाज विकसित नहीं है। शारीरिक स्तर पर विकसित हो सकता है, बौद्धिक और आर्थिक स्तर पर विकसित हो सकता है पर भावनात्मक स्तर पर आज भी बहुत अविकसित है। फिर कैसे शान्ति की बात सोची जा सकती है ?
समस्या परिवार की परिवार की समस्या एक बहुत बड़ी समस्या है। धार्मिक जगत् के सामने भी एक बहुत बड़ा प्रश्न है। आपने शायद कभी अनुभव न किया हो किन्तु हमें इसका अनुभव बराबर होता है। धार्मिक परिवार जब परस्पर भावनात्मक ४८ / विचार को बदलना सीखें
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