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जरूरत है अचछे जीवन की माता-पिता का काम अपने बच्चों को धन कमाने लायक बना देना ही नहीं है। अगर इतना करके ही वे अपने कार्य की इतिश्री मान लेते हैं तो मानना चाहिए-यह बच्चों को अंधकारपूर्ण भविष्य को ओर धकेलने की बात होगी, उन बच्चों के साथ न्याय नहीं होगा। सबसे पहली जरूरत है-वे अच्छा जीवन जीएं। दूसरी जरूरत है-अच्छा जीवन जीने के साधन स्वयं खोज सकें। आज दूसरी बात में रस कुछ ज्यादा है। परिवार का सदस्य कैसे उद्योग लगा सके, व्यापार चला सके, अच्छी नौकरी कर सके, इसमें तो काफी दिलचस्पी है। इसमें कहीं न कहीं उनका स्वार्थ जुड़ा हुआ है। किन्तु पहली बात- 'अच्छा जीवन जी सकें'-की घोर उपेक्षा की जा रही है। ध्यान इस ओर गया नहीं या दिलाया नहीं गया, अथवा जानबूझ कर गहराई से चिंतन नहीं किया गया। कहीं न कहीं त्रुटि अवश्य है। इस पर गंभीरता से चिंतन होना चाहिए और उन लोगों को यह चिंतन करना चाहिए, जो बुद्धिजीवी कहलाते हैं, जिनमें सोचने, समझने और विचार करने की क्षमता है। वे सोचें-शिक्षा का वह ढर्रा, जो सरकार ने थोप दिया है, वही चलेगा या उसके अतिरिक्त भी बच्चे को कुछ सिखाया जा सकेगा ? समाधान है त्रिवेणी इन दस वर्षों में सैंकड़ों लोगों से हमने सुना है-हमने तो बच्चे को किस आशा से पढ़ाया था और आज क्या देख रहे हैं ? कुछ लोग तो यह भी कह देते हैं--- 'ऐसा जानते तो हम पढ़ाते ही नहीं, इतना पैसा क्यों लगाते ? हमने तो बड़ी-बड़ी आशाएं लगा रखी थीं, सारी धूल में मिल गयीं।' यह निराशा, अवसाद और दुःख का स्वर बहुत सुनने को मिलता है। केवल किसी एक समाज विशेष में नहीं, बल्कि व्यापक स्तर पर यह स्वर सुनने को मिलता है। किन्तु इसके निवारण का लोगों को कोई उपाय सूझ नहीं रहा है। अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान-इस त्रिवेणी में निमज्जन और अवगाहन से जो एक समाधान निकला है, वह यह है कि एक वर्ष का कोर्स और जोड़ दिया जाए। सरकारी स्तर पर ऐसा किया जा सकेगा या नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वहां आंकड़ों और गणित की भाषा ज्यादा चलती है, यथार्थ की कम। किन्तु ४२ / विचार को बदलना सीखें
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