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थे। आज की जैसी स्थिति थी। सरकार जनता के लिए कुछ भी घोषित करे, बीच के लोग अपना हिस्सा निकाल ही लेते हैं। पंडित कवि ने घोड़ा मांगा तो राज्यकर्मचारियों ने आपस में परामर्श किया- 'यह पंडित अच्छा घोड़ा लेकर क्या करेगा ? फलतः उन्होंने एक मरियल-सा घोड़ा पंडितजी को दे दिया और सूर्योदय से पूर्व ही उन लोगों ने पंडित को वहां से विदा कर दिया। बेचारे पंडित कवि का मन खिन्न हो गया। वह विद्वान् कवि चिंतनशील था। कर्मचारियों की धूर्तता से वह अनजान नहीं था। उस दिन तो वह चला गया, किन्तु दूसरे दिन फिर राजदरबार में पहुंचा। राजसभा में राजा को अभिवादन किया। राजा ने पूछा- 'पंडितजी ! कैसे आए ?
कवि बोला- 'बस, ऐसे ही अभिवादन करने चला आया।' राजा ने पूछा- 'घोड़ा तो मिल गया ? 'हां राजन्, मिल गया। 'कैसा है ?
'बहत अच्छा है। इतना अच्छा कि उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
'दौड़ते में कैसा है ?
'राजन् ! इतना तेज कि एक ही रात में वह दूसरी दुनिया में जा पहुंचा है।' अनिवार्य हो एक वर्ष का कोर्स चिंतनशील और बौद्धिक लोग इस प्रश्न पर गंभीरता से सोचें। यह ऐसा प्रश्न है, ऐसी समस्या है, जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। इस पर सोचना पड़ेगा, कुछ करना पड़ेगा अन्यथा यह भयावह स्थिति समाज और राष्ट्र को पतन की ओर ले जायेगी। इसके लिए आवश्यक है-फाइनल परीक्षा के बाद विद्यार्थी के लिए एक वर्ष का यह कोर्स अनिवार्य कर दिया जाए। तेरापंथ बुद्धिजीवी मंच के लोग इस प्रयोग को स्वयं से शुरू करें। वे संकल्पित हों कि हमें अपने बच्चों को एक वर्ष का यह प्रायोगिक प्रशिक्षण देना ही है, जिससे उनका भावी जीवन सुखी और शान्तिमय बन सके।
धर्म और शिक्षा / ४१
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