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वह सोचने लग जायेगा कि सत्य क्या है ? क्या पदार्थ सत्य है ? जब तक हम गहराई से नहीं सोचते हैं, तब तक पदार्थ हमारे लिए सब कुछ है। जब सोचने लग जाते हैं तब पदार्थ का मिथ्यापन हमारे सामने स्पष्ट होने लगता है।
तब होता है मूल्य शंकराचार्य ने कहा था-'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या-'ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है। इस सूत्र की दार्शनिक व्याख्या जटिल बना दी गयी। मूलतः यह अध्यात्म का सूत्र था। सत्य है चैतन्य। पदार्थ मिथ्या है। मिथ्या इस अर्थ में कि आज तो है, कल नहीं है। अभी है, शाम को नहीं है। जो पदार्थ आज तृप्ति दे रहा है, थोड़े दिन बाद अतृप्ति देने लग जायेगा। मैं आज सवेरे हाल में खड़ा था। पीछे हौज में गिरते हुए पानी को देखा। ध्यान से कोई बात देखता हूं तो उसमें मुझे कोई नयी बात मिल जाती है। गिरते पानी को देखकर मैंने सोचा-इस पानी का मूल्य क्या है ? संभवतः कुछ भी नहीं, यों ही गिर रहा है। दूसरे ही क्षण सोचा-अभी-अभी मैंने पानी पिया है, इसीलिए लगता है कि पानी का कोई मूल्य नहीं है। अगर पांच दिन की चौविहार तपस्या में इस पानी को देखता तो इसका मूल्य समझ में आ जाता।
पदार्थ से जुड़ी है अतृप्ति वस्तु का कोई मूल्य नहीं है। अतृप्ति का क्षण आता है तो मूल्य सामने आने लग जाता है। किन्तु पदार्थ की यह विशेषता है कि वह तृप्त कभी होने ही नहीं देता। उससे तृप्ति कभी होती ही नहीं। एक बार तृप्ति का आभास होता है। हमने पानी पी लिया तो घंटा भर उसकी उपेक्षा कर सकते हैं। वह जरूरी नहीं लग सकता है किन्तु घंटा भर बाद अतृप्ति पुनः पैदा हो जाती है। सहज प्रश्न होता है-लोग न जाने कितने समय से इतने भोगों का सेवन कर रहे हैं। क्या सभी तृप्त हो गये ? अगर भोजन करने से तृप्त हो गये तो फिर क्यों बार-बार यही क्रम दुहराना पड़ता है ? सचाई यही है कि लंबे समय से भोगों का सेवन करते हुए भी कोई तृप्त नहीं हुआ है। यथार्थ यह है-भोग से अतृप्ति और बढ़ जाती है। भूख नहीं है,
३० / विचार को बदलना सीखें
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