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ये परिणाम भुगतने पड़ेंगे। यह नहीं कहा जा सकता-आर्थिक विकास
और पदार्थ विकास जरूरी नहीं है। वह जरूरी है, किन्तु व्यवहार को चलाने वाले के लिए उतना जरूरी नहीं है जितना जरूरी मानसिक और भावनात्मक विकास है। पूरी मानवजाति की पीड़ा और वेदना को हम समझ सकें तो ऐसा प्रतीत होगा-यह एक बड़ी करुण कहानी है। रुक्का किसने दिया ? एक दार्शनिक तपस्वी किसी गांव में आया। उसकी बहुत दूर-दूर तक बड़ी ख्याति और प्रसिद्धि थी। सम्राट के मन में जिज्ञासा जागी-ऐसे दार्शनिक से क्यों न मिला जाये ? एक आदमी उस दार्शनिक के पास पहुंचा और उसके हाथ में एक रुक्का थमा दिया। दार्शनिक ने पूछा-'तुम कौन' ? वह बोला- 'मैं सम्राट का कर्मचारी हूं। सम्राट ने ही यह रुक्का आपको देने के लिए कहा है।' दार्शनिक ने कहा- 'तुम्हें कैसे पता कि सम्राट ने ही दिया है। क्या सम्राट् से तुम मिलकर आए हो ? कर्मचारी ने कहा-'नहीं सम्राट ने नहीं, मेरे अधिकारी ने मुझे रुक्का देते हुए कहा था-यह सम्राट ने दिया है, तम स्वामीजी तक इसे पहुंचा दो।' दार्शनिक ने कहा- 'चलो उस अधिकारी के पास' । अधिकारी के पास आकर पूछा-'क्या यह रुक्का सम्राट ने दिया है ?
अधिकारी बोला- 'हां सम्राट ने ही दिया है।' 'क्या सम्राट ने अपने हाथ से तुम्हें दिया ?
'नहीं, सम्राट ने नहीं, एक सैनिक ने लाकर मुझे दिया कि यह सम्राट का रुक्का आप तक पहुंचा दिया जाए।'
तीनों अब उस सैनिक के पास गये पूछा- 'यह रुक्का किसने दिया ? 'सम्राट ने दिया' ? 'तुम मिलकर आए सम्राट् से ? 'नहीं, मुझे मंत्री ने दिया।'
चारों मंत्री के पास पहंचे। मंत्री ने कहा-'यह रुक्का मुझे सम्राट ने नहीं, उनके निजी सेवक से प्राप्त हुआ है।'
वे उस सेवक के पास गये, पूछा- 'यह रुक्का किसका है ? 'सम्राट् का है।
जीवन की नई व्याख्या / ६
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