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क्यों होते हैं रोग ? आज का युग इतना यांत्रिक बन गया है, इतनी व्यस्तता बढ़ गयी है कि व्यक्ति ध्यान के लिए समय कब निकाले ? उसे यह सोचने का समय भी नहीं है कि इतनी खतरनाक और अहितकर चीज से हटना चाहिए। रोग एक खतरा है और उससे निवृत्त होना जरूरी है। बहुत सारे लोग अपनी प्रवृत्ति की बहुलता के कारण रोगों को स्वयं निमंत्रित करते हैं। आज स्वास्थ्य की पूरी मीमांसा की जाए तो यह निष्कर्ष निकलेगा-साठ-सत्तर प्रतिशत रोग प्रवृत्ति की बहुलता के कारण होते हैं। जितनी मानसिक बीमारियां हैं, वे निरंतर प्रवृत्ति का परिणाम हैं। बहत सारी खतरनाक बीमारियों के पीछे प्रवृत्ति की यह निरंतरता ही है। एक नियम जैसा ही बना लिया गया-एक कर्मचारी या मजदूर आठ घंटे अपनी ड्यूटी देता है, काम करता है और मालिक बारह-चौदह घंटा काम करता है। इसका मतलब है-वह छोटा कर्मचारी मालिक से बड़ा कर्मचारी है। मालिक इस अर्थ में बड़ा मजदूर है, क्योंकि उसे डबल ड्यूटी देनी पड़ती है। जहां प्रवृत्ति की इतनी संकुलता हो जाती है, वहां न धर्म की बात चलती है, न आराधना की बात, न केवल अपने आप को देखने की बात, वहां तो बस प्रवृत्ति का चक्र चलता है।
बढ़ी है अम्लता आज के युग में एसिडीटी की बीमारी बहुत बढ़ी है। प्रवृत्ति के साथ अम्लता का बढ़ना स्वाभाविक है। अम्लता बढ़ेगी तो बीमारियां भी बढ़ेगी। अम्लता और क्षार का हमारे शरीर में एक संतुलन होना चाहिए। यदि हम संतुलन को कायम नहीं रखते हैं तो हमें बीमारी का सामना करने को तैयार रहना चाहिए। हमारा अधिकांश भोजन अम्लता प्रधान होता है, क्षार प्रधान कम होता है। यह संतुलन नहीं रहता है, इसलिए बीमारियां बढ़ती हैं। अन्न खाया, चीनी खाई, मिठाइयां खाई, घी खाया-ये सब अम्लता पैदा करने वाले तत्त्व हैं। ठीक यही बात हमारे भीतर भी लागू होती है-हम केवल प्रवृत्ति के द्वारा अम्लता को बहुत बढ़ा लेते हैं, क्षार की मात्रा कम करके बीमारियों को निमंत्रित करते हैं। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के संतुलन की जरूरत है। आदमी में ऐसा कोई लोभ है, ऐसी कोई वासना है कि वह संतुलन नहीं कर पाता। ६ / विचार को बदलना सीखें
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