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हो जाओ, किसी को कहते हैं - निवृत्त हो जाओ और किसी को कहते हैं, कोई बात नहीं छोड़ो। धर्म को प्रवर्तक लक्षण माना गया है - चोदनालक्षणो
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धर्मः । कहा जाता है कि धर्म में प्रवृत्ति करो। अधर्म तुम्हारे लिए अहितकर है, इसलिए उससे निवृत्ति करो । यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र सतत चल रहा है। ध्यान करो और चंचलता को छोड़ो, यह एक प्रेरणा है । विवेक चंचलता को कम करने या छोड़ने की बात कहता है । आदमी उलझ जाता है। वह सोचता है-यदि चंचल प्रवृत्ति अथवा सक्रियता को कम कर दिया तो हम निठल्ले बन जायेंगे। आज जो विकास हुआ है, वह बहुत कुछ चंचलता के कारण हुआ है । इतने पदार्थ, इतने संसाधन और उपकरण - ये सब ध्यान से बने हैं या चंचलता से बने हैं ? निश्चय ही चंचलता से बने हैं। अगर सब ध्यान कर बैठ जाते, हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाते तो ये बहुमंजिली इमारतें बनतीं, न मोटरकार और हवाईजहाज बनते, खेतीबाड़ी भी नहीं होती। हिन्दुस्तान में ध्यान का बहुत विकास हुआ किन्तु अगर पूरा देश ध्यानी बन जाता तो खाने के लिए फिर बाहर से ही मंगाना पड़ता । मंगाता भी कौन ? भूखे ही मरना पड़ता ।
चिन्तन की भाषा
बड़ी समस्या है। एक ओर हम कहते हैं कि ध्यान करो, चंचलता को कम करो, निष्क्रिय बनो, दूसरी ओर हमारा सारा काम सक्रियता से चल रहा है, प्रवृत्ति की बहुलता से चल रहा है। आज का संसार तो इतना प्रवृत्ति बहुल हो गया है कि इसमें ध्यान की बात करना ही हास्यास्पद लगता है । आज का व्यक्ति इस भाषा में सोचता है - किसे फुर्सत है दो-चार घंटा आंख मूंदकर निकम्मा बैठने की। फिर हमारा विकास कैसे होगा ? पिछड़ नहीं जायेंगे हम ?
आखिर करें क्या ? रहना सचाई में है, किन्तु जीना तो व्यवहार में है। जहां व्यवहार है वहां प्रवृत्ति, निवृत्ति और उपेक्षा तीनों चलेंगे। कोरी निवृत्ति की बात वहां समझ में नहीं आती इसीलिए सामान्य आदमी विवेक नहीं कर पाता किन्तु कुछ विवेक करने वाले भी दुनिया में होते हैं। प्राचीन संस्कृति साहित्य का सूत्र है - क्षीर- नीर - विवेकवत् यथा हंसः, जैसे हंस दूध और पानी का विवेक कर देता है । यह हंसों के लिए
४ / विचार को बदलना सीखें
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