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और जिसे मार दिया गया, वह जहरीला है, खतरनाक है, इसके काटने पर आदमी मर जाता है इसलिए सब भयभीत हो गये, उसे मार दिया।'
व्यवहार होता है ज्ञान के साथ जिससे खतरा होता है, उससे आदमी निवृत्त होना चाहता है, दूर होना चाहता है। जिससे खतरा नहीं होता, उसकी अपेक्षा कर देता है। जो हितकर होता है, उसकी ओर आदमी जाना चाहता है, प्रवृत्ति करना चाहता है। हमारी प्रवृत्ति के, व्यवहार के ये तीन रूप हैं-निवृत्ति, प्रवृत्ति और उपेक्षा। इनके तीन हेतु हैं-हेय, उपादेय और उपेक्षणीय। हमारे जीवन का सारा व्यवहार इन तीनों में सिमट जाता है। यह सारा व्यवहार पैदा होता है अनुभव के साथ, ज्ञान के साथ। आदमी जानता है और जानने के बाद व्यवहार करता है। जिस वस्तु के बारे में हमारी जानकारी नहीं है, उसके बारे में हमारा कोई व्यवहार नहीं होता। व्यवहार जानने के बाद ही होता है। सामने एक मोती पड़ा है, किन्तु जिस व्यक्ति को मोती के बारे में कोई जानकारी नहीं है, वह उसके प्रति आकृष्ट नहीं होता। संस्कृत साहित्य में कहा जाता है-एक जंगली आदमी, आदिवासी या भील के लिए मोती का कोई महत्त्व नहीं होता है। एक शेर आया और महान् वैयाकरण को खा गया। उसके लिए वैयाकरण का कोई मूल्य नहीं है। उसके लिए तो वह मात्र खाने की चीज है। हमारे व्यवहार में वे ही चीजें आती हैं, जिनका मूल्य या अवमूल्य हमारी समझ में आ जाता है। बहुत सारी अमूल्य वनस्पतियां हैं। उनके बारे में हमारी कोई जानकारी नहीं है। वे हमारे लिए बेकार के पौधे हैं। एक कुशल वैद्य उन्हें देखता है, उसकी आंखों में चमक आ जाती है। वह उन्हें देखकर मुग्ध हो जाता है, सोचता है, कितनी मूल्यवान् और उपयोगी वनस्पतियां हैं। जो वनस्पतियां एक सामान्य आदमी के लिए मूल्यहीन होती हैं, वे एक वैद्य के लिए उपयोगी और मूल्यवान् बन जाती हैं।
प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र भाषा और ज्ञान-ये दोनों हमारे व्यवहार के प्रवर्तक या नियामक हैं। हम जानते हैं और जानने के बाद व्यवहार करते हैं, किसी को कहते हैं-प्रवृत्त
जीवन की नई व्याख्या / ३
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