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पदार्थ ऐसे हैं जो उपादेय हैं, ग्रहण करने योग्य हैं और कुछ पदार्थ ऐसे हैं जो न स्वीकार करने योग्य हैं और न छोड़ने योग्य। प्रवृत्ति, निवृत्ति और उपेक्षा दो आदमी जा रहे हैं। चलते-चलते रास्ते में चट्टान आ गई। एक ने कहा-हट कर चलो, बीच में चट्टान है, ठोकर खा जाओगे। वह हट जाता है, निवृत्त हो जाता है और दूसरे रास्ते से प्रवृत्त होता है। दोनों चले जा रहे हैं, प्रवृत्ति भी है और निवृत्ति भी है। बीच में कोई तिनका आ गया। वह उपेक्षणीय है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। रास्ते में आग जलती हुई मिली। तत्काल कहेगा-अरे ! बचना, कहीं आग की लपेट में आकर झुलस न जाएं। वह आग से निवृत्त होता है और दसूरे रास्ते में प्रवृत्त होता है। चलते-चलते राख की ढेरी आ गयी। वह बुझी हुई आग है। न उससे बचने की जरूरत, न फंसने की जरूरत, उपेक्षणीय है वह। उससे कोई भय नहीं है, खतरा नहीं है। इसका अर्थ है-जिससे खतरा होता है, उससे मनुष्य निवृत्त होना चाहता है। जिससे लाभ होता है, उसमें प्रवृत्ति करना चाहता है। जिससे न खतरा होता है और न लाभ, उसमें न प्रवृत्ति और न निवृत्ति। उसकी उपेक्षा हो जाती है। मौन क्यों ? चिल्लाए क्यों ? कुछ बच्चे खेल रहे थे। कुछ देर बाद एक गिरगिट निकला। बच्चों ने देखा, गिरगिट आया और चला गया। किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। थोड़ी देर बाद एक सांप निकला। जैसे ही सांप दिखाई दिया, बच्चे भय से चिल्लाने लगे। बचने के लिए भागने लगे। सुरक्षा की तैयारी करने लगे। सबने मिलकर सांप को मार दिया। एक बच्चे के मन में प्रश्न पैदा हुआ-पहले जो जन्तु दिखाई पड़ा, उसे देखकर किसी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, कोई बोला नहीं। जब सांप दिखाई पड़ा, सब भय से चिल्ला पड़े। गिरगिट को देखकर सब मौन क्यों रहे ? सांप को देखकर सब क्यों चिल्लाए ? एक समझदार ने उसकी शंका का समाधान करते हुए कहा- पहले जो दिखाई पड़ा था, वह गिरगिट था। आकार में वह सांप से मिलता-जुलता है, पर खतरनाक नहीं होता, किसी को वह काटता नहीं। दूसरा जो जन्तु आया
२ / विचार को बदलना सीखें
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