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है शक्ति का विकास, शौर्य और पराक्रम का विकास। पूज्य गुरुदेव की अनुभवपूरित वाणी है- 'एक आचार्य को जितना सहन करना होता है, सामान्य मुनि को उतना सहन करना नहीं होता। आचार्य को बहुत सहन करना पड़ता है। सामान्य मुनि तो समय पर कभी-कभी आवेश में भी आ जाता है, किन्तु आचार्य को वहां शान्त रहना होता है। वे जानते हैं-छोटा मुनि आवेश में है, अभी इसे शान्तभाव से सहना है। यह बड़प्पन का काम है। आवेश की आग में घी की आहुति नहीं देना है। बड़प्पन है उफनते दूध में पानी का छींटा डाल देना, जिससे उफान को उपलब्ध दूध नीचे ढुले नहीं, राख में गिर कर खराब न हो जाए। यह विवेक बड़े में हो सकता है, शायद छोटे में न भी हो। घर के मुखिया व्यक्ति सहिष्णु नहीं होते हैं तो परिवार टूटने-बिखरने लगता है, परस्पर झगड़े चलते हैं।
मार्मिक उत्तर सहिष्णुता का महत्त्व क्या है ? इसका एक निदर्शन चीन के प्रधानमंत्री का यह मार्मिक उत्तर है- 'हजार लोगों की रसोई एक साथ इसलिए बन रही है कि मैंने सब कुछ सहा है।' आप कल्पना करें, हजार लोगों की रसोई एक साथ बने। हजार लोगों के लिए एक स्थान पर चूल्हा जले। आजकल तो इतनी बड़ी बारातें भी नहीं आतीं। प्राचीन युग में तो दो-दो हजार लोगों की बारात आ जाती थी, पर आज यदि हजार लोगों की बारात आ जाए तो मुसीबत आ जाए। संभव नहीं है। इतने लोगों का एक साथ भोजन कैसे होता था, ऐसे परिवारों को हमने देखा है, जिनमें सौ-सौ लोगों की रसोई एक साथ बनती थी। आज ऐसे कितने परिवार मिलेंगे, जिनमें सौ
आदमियों की रसोई एक साथ बनती हो। शायद ऐसे परिवार मुश्किल से मिलेंगे। कारण स्पष्ट है परिवार उतने बड़े रहे भी नहीं और लोग साथ रहना जानते भी नहीं। जैसे ही भाइयों की शादी होती है, कुछ समय बाद दो चूल्हे जलते हैं और घर के बीच में दीवारें भी खिंच जाती हैं। एक घर में दीवार खिंची और दो घर बन गये। प्रेक्षाध्यान के शिविरों में सौ आदमियों की रसोई एक साथ बनती है। शिविर भी एक परिवार बनता है। सैकड़ों लोग एक साथ रहते हैं, क्योंकि वहां एक साथ रहने की कला सिखाई जाती है। साथ में कैसे रहा जाए, यह एक बड़ी कला है। जो इस कला को नहीं
पारिवारिक जीवन और शान्त सहवास / १५५
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