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नहीं है। मूल की खोज का साधन केवल अध्यात्म है। अच्छाई या बुराई-दोनों के बीज चेतना में हैं। चेतना की गहराइयों में गये बिना अपराध निरोध का प्रयत्न बहुत सफल नहीं होता।
चेतना के तीन स्तर हैं-इन्द्रिय चेतना, मनश्चेतना और भावचेतना। इन्द्रिय चेतना में अतृप्ति की तरंग है। मनश्चेतना में चंचलता की ऊर्मि है। भावचेतना में लोभ अथवा तृष्णा का आवेश है। ये सब मिलकर अपराध को जन्म देते हैं। मस्तिष्क की विशिष्ट प्रकार की रचना भी अपराध का हेतु है, किन्तु उसका आधार लोभ का संस्कार है। जिस प्रकार का संस्कार होता है, मस्तिष्क की रचना भी उसी प्रकार की होती है। यह कहना अधिक संगत होगा कि अपराध का मूल लोभ के आवेश की तीव्रता है। क्यों बढ़ते हैं अपराध ? अपराध निरोध अथवा सुधार के लिए समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, दण्डशास्त्र, विधिशास्त्र आदि-आदि पर ध्यान केन्द्रित होता है, किन्तु अध्यात्मशास्त्र
और योगशास्त्र की विस्मृति बनी रहती है। फलतः बाह्य उपचार होता रहता है। भीतरी शल्य तक पहुंचा नहीं जाता।
कानून और दंडसंहिता की व्यर्थता प्रमाणित करना हमारा लक्ष्य नहीं है। उनकी अपनी सीमा तक उपयोगिता है। रोग का इलाज करना दवा की उपयोगिता है। क्या रोग होता रहे और चिकित्सा चलती रहे, यह पर्याप्त है ? इस अपर्याप्तता की अनुभूति हजारों वर्ष पहले हो चुकी थी। आयुर्वेद के आचार्यों ने लिखा-'रोग न हो, इसकी व्यवस्था करना तथा रोग की चिकित्सा करना आयुर्वेद का लक्ष्य है।' आयुर्विज्ञान (मेडिकल साइंस) का भी यह अभिमत है-'चिकित्सा की अपेक्षा रोग न हो, यह व्यवस्था अधिक उत्तम है।' प्रतीत हो रहा है सामाजिक क्षेत्र में अपराध निरोध के लिए दंडसंहिता को जितना उत्तम उपाय माना है, उतना आध्यात्मिक शिक्षण और प्रशिक्षण को नहीं माना गया। अपराध की बढ़त उसी का परिणाम है। यदि दंडसंहिता के साथ-साथ आध्यात्मिक शिक्षा की विधि प्रचलित होती तो अपराध की मात्रा में अधिक कमी आ जाती।
१४६ / विचार को बदलना सीखें
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