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समस्या का दूसरा पक्ष बढ़ती हुई आबादी स्वयं एक समस्या है। प्रत्येक आदमी की प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बड़े उद्योगों की जरूरत है इसलिए विकास की सीमा को निर्धारित नहीं किया जा सकता। इस तर्क के पीछे छिपी हुई सचाई को कोई भी व्यक्ति अस्वीकार नहीं करेगा। हम समस्या के दूसरे पक्ष पर विचार करें। लोभ एक तीव्र संवेग है। उसकी प्रेरणा ने विकास की अवधारणा को जो आधार दिया है, उसे सीमित करना आवश्यक है। हमारा अभिमत है-असंतुलित संवेग और असंतुलित विकास की अवस्था में प्रकृति के साथ जीने की कल्पना कठिन हो जाती है। आज का करणीय कार्य यह है कि हम लोभ के संवेग के साथ करुणा के संवेग को जागृत करें। लोभ के संवेग को नियंत्रित करने का शक्तिशाली अस्त्र करुणा, अहिंसा या मैत्री है। महावीर ने कहा था-छोटे-से-छोटे जीव के अस्तित्व को अस्वीकार मत करो और अपने अस्तित्व को भी अस्वीकार मत करो। जो दूसरे जीव के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपने अस्तित्व को अस्वीकार करता है। जो अपने अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह दूसरे जीव के अस्तित्व को अस्वीकार करता है
से बेमि-णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा। जे लोयं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अभाइक्खइ। जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, ये लोयं अब्भाइक्खइ।
नैतिक मूल्यों का हास दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला ही प्रकृति के साथ जी सकता है। कुछ चिन्तकों का तर्क है-बुद्धिमान् मनुष्य प्रकृति के साथ छेड़छाड करता है, विकास के लिए वैसा करना जरूरी है। वह प्रकृति में होने वाली क्षति की पूर्ति करना भी जानता है, इसलिए विकास की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता, उसकी कोई सीमा नहीं की जा सकती। यह चिन्तन अर्थहीन नहीं है। ऊर्जा का व्यय होता है तो उसके नए स्रोत खोजे जा सकते हैं। जंगलों की कटाई होती है तो नए जंगल तैयार किए जा सकते हैं। प्रदूषित पर्यावरण को विशुद्ध करने के तरीके खोजे जा सकते
प्रकृति के साथ जीएं । १३३
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