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आर्थिक महत्त्वाकांक्षा अथवा आर्थिक स्पर्धा ने मानवीय मूल्यों और पर्यावरण- दोनों की उपेक्षा की है फलतः सृष्टि संतुलन (इकोलॉजी) की समस्या उत्पन्न हुई है ।
विकास के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है । वह संवेग के अतिरेक से प्रभावित है । अप्रभावित चिन्तन और अप्रभावित बुद्धि का निर्णय सही होता है । संवेग की अतिरेक दशा में चिन्तन और बुद्धि - दोनों निष्क्रिय हो जाते हैं । इस निष्क्रियता की भूमिका पर होने वाला विकास मानवीय सभ्यता और संस्कृति के लिए वरदान नहीं होता ।
समस्या संवेगातिरेक की
औद्योगिक और आर्थिक विकास ने कुछ समस्याएं सुलझाई हैं । आज रोटी, कपड़ा अधिकांश गरीबों की झोंपड़ी तक पहुंच रहे हैं । मकान की समस्या अभी भी बनी हुई है। फिर भी यह कहने में संकोच नहीं होगा - आर्थिक विकास ने अमीरी को बढ़ावा देने के साथ-साथ गरीबी को भी बढ़ावा दिया है । वर्तमान से संपत्ति और उपभोग के साधनों पर अल्पसंख्यक व्यक्तियों का अधिकार है । बहुसंख्यक लोग उस अधिकार से वंचित हैं । विकसित राष्ट्र जितनी साधन-सामग्री का उपभोग कर रहे हैं, उससे न्यूनतर उपभोग सामग्री विकासशील राष्ट्रों के पास है और अविकसित राष्ट्रों के पास न्यूनतम | गरीबी की अनुभूति और उससे उत्पन्न असंतोष आज जितना जटिल है उतना अतीत में नहीं था । वह असंतोष प्रकृति के नियमों को भंग करने का हेतु बन रहा है । हर व्यक्ति येन-केन-प्रकारेण अमीर बनना चाहता है । उस धुन में जंगलों की कटाई हो सकती है, फैक्ट्रियों का कचरा नदियों में प्रवाहित कर जल को दूषित किया जा सकता है और भूमि का मर्यादाहीन खनन किया जा सकता है । अमीरी के लिए सब कुछ किया जा सकता है और सब कुछ हो रहा है । हम संवेगातिरेक की समस्या को सुलझाए बिना अनैतिकता अथवा अप्रमाणिकता की समस्या को नहीं सुलझा सकते। अनैतिकता की समस्या को सुलझाए बिना सृष्टि संतुलन (इकोलॉजी) और पर्यावरण (इनवार्नमेन्ट) की समस्या को नहीं सुलझा सकते ।
१३२ / विचार को बदलना सीखें
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