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________________ प्रकृति के साथ कैसे जीएं ? हमारा दृश्य जगत् दो तत्त्वों का संग्रहालय है। एक तत्त्व है जीवच्छरीर और दूसरा तत्त्व है जीव-मुक्त शरीर। हमें जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह वर्तमान में किसी न किसी जीव का शरीर है अथवा वह पहले किसी न किसी जीव का शरीर रह चुका है इसलिए सृष्टि को हम जीव-शरीर की सृष्टि कह सकते हैं। मनुष्य स्वयं प्राणी है इसलिए वह स्वयं पर्यावरण का एक अंग है। उसके लिए सारी सृष्टि पर्यावरण है। पर्यावरण को प्रदूषित करने वाला अपने अस्तित्व को इसलिए खतरा पैदा कर रहा है कि वह स्वयं पर्यावरण से अभिन्न है। पर्यावरण का खतरा स्वयं के लिए खतरा है। इस अवधारणा अथवा अनुभूति के साथ ही हम अपनी वक्तव्यता प्रारंभ करना चाहते हैं। प्रश्न है विकास का वक्तव्य का पहला चर्चनीय बिन्दु है विकास। विकास के विषय में कोई दो मत नहीं हैं। मतभेद का विषय है सीमा। आदिमकाल से लेकर अब तक विकास का चक्र चलता रहा। उसकी गति बहुत धीमी थी। बीसवीं शताब्दी में विकास की रफ्तार बहुत तेज हुई है। उसका श्रेय विज्ञान को है। सृष्टि संतुलन (इकोलॉजी) की समस्या का श्रेय भी विकास की आंधी को ही है। असंतुलित विकास को एक नदी का प्रवाह मानें तो बाढ़ का खतरा हो रहा है। मानवीय मूल्य और पर्यावरण-ये दोनों तटबंध टूट गए हैं। अब जल-प्रवाह की रोकथाम करना संभव नहीं है। मानवीय मूल्यों के विकास और पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ जो विकास होता है, वह संतुलित विकास है। उससे मानवीय अस्तित्व को कोई खतरा पैदा नहीं होता। प्रकृति के साथ जीएं / १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003130
Book TitleVichar ko Badalna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2005
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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