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शरीर की रासायनिक प्रक्रिया गड़बड़ाती है तब हमारी प्रवृत्ति हिंसा की ओर मुड़ती है।
कारण की खोज हमें हिंसा के मार्ग को खोजना है। उसका रूट क्या है ? मूल कारण या उपादान क्या है ? हम जब तक कारण की खोज नहीं करेंगे, समाज में बढ़ती हुई हिंसा की वृत्ति रोकी नहीं जा सकेगी। चिकित्सा विज्ञान या मेडिकल साइंस का काम केवल शरीर और मन की चिकित्सा करना मात्र नहीं है। जब तक हम मन से परे (Beyond Mind) जाकर उस सचाई को नहीं खोजेंगे, समस्या का समाधान नहीं मिलेगा। अध्यात्म ने यही प्रयत्न किया था कि हमारी जो भावधारा या चित्त की वृत्तियां हैं, उनमें बदलाव कैसे लाया जाए ? हमारे देश के एक महान् ऋषि हुए हैं-महर्षि पतंजलि। उन्होंने 'योगसूत्र' लिखा। उसका पहला सूत्र है-चित्तवृत्तिनिरोधो योगःयोग का अर्थ है-चित्तवृत्तियों का निरोध करना। पूज्य गुरुदेव ने मनोनुशासनम् में लिखा-'पूर्वं शोधनं ततो निरोधः।' विरोध से पहले जरूरी है शोधन। चित्तवृत्ति का परिष्कार करना योग है। वृत्ति का परिष्कार करने के लिए उसकी प्रक्रिया को समझना अपेक्षित है।
विज्ञान और धर्म मैं स्वीकार करता हूं-वैज्ञानिक खोजों ने बहुत सारी सचाइयों को उजागर किया है। बहुत सारे धर्मगुरु कहते रहे हैं-विज्ञान ने धर्म का सत्यानाश कर दिया किन्तु पूज्य गुरुदेव ने इस कथन का कभी समर्थन नहीं किया। उनका निरंतर यह घोष रहा-विज्ञान को पढ़ना चाहिए। विज्ञान ने सचमुच धर्म का बहुत उपकार किया है। प्रेक्षाध्यान के बहुत सारे प्रयोगों में साइकोलोजी, फिजियोलोजी, सोशोलोजी, इकोलोजी आदि का सहारा लिया गया है। इन्हीं के आधार पर प्रेक्षाध्यान के सारे प्रयोग चले हैं, चल रहे हैं। इनसे बड़ी मदद मिली है। दिल्ली में सन् १९८७ में प्रेक्षाध्यान और शरीरविज्ञान पर एक गोष्ठी आयोजित हुई थी। उसमें ध्यान के कई अच्छे साधक और मेडिकल साइंस के कई बड़े डॉक्टर भाग ले रहे थे। मैंने कहा-'श्वास लेने की सबसे अच्छी पद्धति यह है कि श्वास लेते समय
स्वास्थ्य : अध्यात्म और विज्ञान के संदर्भ में / १२७
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