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आहार-शुद्धि और व्यसन मुक्ति
आहार-शुद्धि का विचार केवल धर्मशास्त्र का ही विषय नहीं है, यह स्वास्थ्य शास्त्र और व्यवहार मनोविज्ञान का भी विषय बन चुका है । बहुत पुराना सूक्त है - जैसा अन्न खाता है, वैसा मन होता है । विज्ञान ने इस सूक्त में कुछ और जोड़ दिया जैसा आहार, वैसा न्यूरोट्रांस-मीटर, जैसा न्यूरोट्रांस मीटर वैसा व्यवहार ।
मांस, अण्डे खाने से रक्त वाहिनियां संकरी हो जाती हैं, हृदय रोग की संभावना बढ़ जाती है ।
मद्यपान लीवर, फुफ्फुस आदि को प्रभावित करता है। तम्बाकू में निकोटिन नामका विषैला पदार्थ है । जो व्यक्ति बीड़ी-सिगरेट पीता है, जर्दा - युक्त पान - पराग खाता है, उसके शरीर के रक्त में वह निकोटिन मिश्रित हो जाता है। इससे रक्तवाहिनियां संकुचित होती हैं, हृदय रोग, कैंसर आदि की संभावना बढ़ जाती है ।
द्यूत आदि व्यसन भी आर्त्तध्यान के बहुत बड़े कारण बनते हैं इसलिए मानसिक शान्ति और प्रसन्नता चाहने वाले व्यक्ति के लिए द्यूत अभिशाप है। उससे बचना बहुत आवश्यक है ।
आहार शुद्धि और व्यसन मुक्ति के फलित हैं१. स्वस्थ और संतुलित जीवन ।
२. शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य में वृद्धि । ३. अपराधी मनोवृत्ति से बचाव |
साधर्मिक वात्सल्य
सामाजिक संगठन के अनेक कारक हैं । जाति के आधार पर एक संगठन बनता है, एक जाति के लोगों की एक बिरादरी बन जाती है। धर्म के आधार पर भी संगठन बनता है । एक धर्म में आस्था रखने वाले लोगों में भी भाईचारे की भावना पैदा हो जाती है। इसी भावना को पुष्ट करने वाला सूत्र है - जो नमस्कार - मन्त्र का धारक है, वह मेरा परम बन्धु है ।
साधर्मिक बन्धु धर्म में स्थिर रहे, यह स्थिरीकरण साधर्मिक वात्सल्य का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है
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जो लोग जन्मना जैन नहीं हैं, वे कर्मणा जैन बन सकें, आहार-शुद्धि
१०२ / विचार को बदलना सीखें
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