SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ग २, बोल १६ / ८७ से नहीं, सहज होती है, इसलिए इसे ओघ संज्ञा कहा गया है। संज्ञा के इन दस प्रकारों में प्रथम आठ प्रकारों को संवेगात्मक और शेष दो प्रकारों को ज्ञानात्मक माना गया है। १६. आहार के तीन प्रकार हैं१. ओज २. रोम ३. कवलं संसार में रहने वाले किसी भी जीव के जीवन का आधार आहार होता है। जब तक आहार का आधार बना रहता है, जीव जीवित रहता है । उस आधार के छटते ही मृत्यु हो जाती है। सामान्यतः कवल आहार को ही आहार मान लिया जाता है, पर यह बहुत स्थूल बात है। हमारा जीवन केवल इसी स्थूल आधार पर टिका नहीं रह सकता। इस आहार के न लेने पर भी प्राणी महीनों तक जीवित रह सकता है । क्योंकि दूसरे स्रोतों से आहार की पूर्ति होती रहती है। वह आहार है ओज और रोम। ओज आहार का ग्रहण जीव की उत्पत्ति के समय ही होता है । इससे आहार के ग्रहण, परिणमन और विसर्जन की पौद्गलिक क्षमता प्राप्त हो जाती है। प्रथम समय में गृहीत ‘ओज' आहार जब तक नहीं चुकता है, तब तक जीवन बना रहता है । इस आहार के चुक जाने पर रोम आहार और कवल आहार का कोई उपयोग नहीं रहता। ओज आहार ग्रहण करने के बाद शरीर निर्मित होता है। उसके अवयवों का विकास होने के बाद गर्भावस्था में ही रोम आहार शुरू हो जाता है । यह आहार भी जीवन के अन्त तक चलता रहता है। दिन-रात, सोते-जागते, घूमते-ठहरते हर क्षण रोम आहार का ग्रहण होता है और यह भी जीवन-धारण में परा सहयोग करता है। तीसरा आहार है कवल आहार । यह समय-समय पर ग्रहण किया जाता है । जीवन-धारण में इस आहार का भी उपयोग है, किन्तु इसके ही आधार पर जीवन चलता है, ऐसी बात नहीं है। इस आहार में खाद्य, पेय, लेह्य आदि सब प्रकार के पदार्थों का समावेश होता है । यह आहार मुख के द्वारा लिया जाता है । इस आहार का उपयोग तब तक ही होता है, जब तक शरीर को ओज आहार का पोषण मिलता रहता है । ओज आहार समाप्त होने के बाद दूसरे किसी आहार में जीवन धारण कर रखने की क्षमता नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy