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________________ वर्ग १, बोल २५/५७ २. छेदोपस्थाप्य चारित्र विस्तार से विभागपूर्वक पांच महाव्रतों को स्वीकार करना । अथवा पूर्व पर्याय को छेद कर दूसरी पर्याय में उपस्थापन करना। ३. परिहारविशुद्धि चारित्र एक निश्चित अवधि तक विशिष्ट तपस्या पूर्वक चारित्र की आराधना करना । ४. सूक्ष्मसम्पराय चारित्र दसवें गुणस्थान का चारित्र । इस चारित्र में कषाय (लोभ) का सूक्ष्म अंश मात्र अवशेष रहता है। ५. यथाख्यात चारित्र वीतराग का चारित्र । मोहकर्म का उपशम या क्षय होने से यह चारित्र उपलब्ध होता है। सामायिक और छेदोपस्थाप्य चारित्र छठे से नौवें गुणस्थान तक होते हैं। परिहारविशुद्धि चारित्र छठे और सातवें गुणस्थान में होता है । सूक्ष्मसम्पराय चारित्र की प्राप्ति दसवें गुणस्थान में होती है । यथाख्यात चारित्र ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक होता है। प्रथम चार चारित्र क्षायोपशमिक भाव है । क्षयोपशम की तरतमता के आधार पर उनके अनेक भेद हो सकते हैं। क्योंकि सब जीवों का क्षयोपशम एक समान नहीं होता। यथाख्यात चारित्र मोहकर्म के उपशम या क्षय सापेक्ष है। उसमें कोई तारतम्य नहीं होता। इसलिए यथाख्यात चारित्रवालों की चारित्रिक उज्ज्वलता एक समान होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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