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३८ / जैनतत्त्वविद्या चक्षुदर्शन
___ आंखों से जो सामान्य अवबोध होता है, वह चक्षुदर्शन है। अचक्षुदर्शन
आंखों के अतिरिक्त चार इन्द्रियों और मन से जो सामान्य अवबोध होता है वह अचक्षुदर्शन है।
यहां प्रश्न उठता है कि चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन के स्थान पर इन्द्रियदर्शन कहने से वांछित अर्थ निकल सकता था, फिर ये दो भेद क्यों किए? इसका सीधा-सा उत्तर यह है कि शास्त्रकारों ने लोक दृष्टि को प्रमुखता देकर यह वर्गीकरण किया है। लोकमत में आंख का अतिरिक्त मूल्य है। सामान्यतः लोग कहते हैं जो हमने आखों से देखा है, वह गलत कैसे हो सकता है।
चक्षु की भांति अन्य इन्द्रियों से भी देखा जा सकता है, जैसे—किसी व्यक्ति ने अंधेरे में आम खाया। उस समय केवल रस का ही बोध नहीं होता, रूप का भी बोध हो जाता है। इस दृष्टि से यह तथ्य निर्विवाद है कि चक्षु के अतिरिक्त इन्द्रियों
और मन से भी देखा जा सकता है। इसलिए अचक्षुदर्शन को भी स्वतंत्र स्थान मिल गया। अवधिदर्शन में इन्द्रियों और मन के बिना ही मूर्त द्रव्यों का साक्षात्कार होता है तथा केवलदर्शन में अनावृत आत्मा के द्वारा रूपवान् और अरूप सभी द्रव्यों की सब पर्यायों का साक्षात्कार हो जाता है।
यहां प्रश्न हो सकता है कि ज्ञान पांच हैं, तब दर्शन चार ही क्यों ? मनःपर्यवज्ञान है तो मनःपर्यवदर्शन क्यों नहीं? प्रश्न अस्वाभाविक नहीं है। इस बात को पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि मनःपर्यवज्ञान एक विशेषज्ञ का काम करता है । वह मन की विविध आकृतियों को पकड़ता है ।उसके द्वारा केवल मन की अवस्थाएं जानी जाती हैं और वे अवस्थाएं विशेष होती हैं, अत: मन:पर्यव का दर्शन नहीं होता।
१५. आत्मा के आठ प्रकार हैं१. द्रव्य २. कषाय ३. योग ४. उपयोग ५. ज्ञान ६. दर्शन ७. चारित्र ८. वीर्य
जीव, जीव के गुण और जीव की क्रियाएं-इन सबको आत्मा कहा जाता है।आत्मा एक चेतनावान् पदार्थ है । चेतना उसका धर्म है और उपयोग उसका लक्षण है। चेतना सदा एक रूप में नहीं रहती। उसका रूपांतरण होता रहता है । जैन दर्शन
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