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________________ ३४ / जैनतत्त्वविद्या (ग) विशिष्ट शक्तिसम्पन्न योगी आहारकलब्धि का प्रयोग करता है। जब तक आहारक शरीर पूरा नहीं बन जाता, तब तक आहारक काययोग के साथ औदारिक का मिश्र होता है। (घ) वैक्रियलब्धि वाले मनुष्य और तिर्यञ्च वैक्रिय रूप बनाते हैं, जब तक रूप-निर्माण का काम पूरा नहीं होता, तब तक वैक्रिय काययोग के साथ औदारिक का मिश्र होता है। देव, नारक, वैक्रियलब्धिसम्पन्न मनुष्य, तिर्यञ्च एवं वायुकाय के वैक्रिय शरीर होता है। वैक्रिय शरीर की प्रवृत्ति वैक्रिय काययोग है। वैक्रिय मिश्र काययोग दो प्रकार से हो सकता है देवता और नारकी में उत्पन्न होने वाला जीव आहार ग्रहण कर लेता है, पर शरीर पर्याप्ति को पूरा नहीं करता है, तब तक कार्मण काययोग के साथ वैक्रिय का मिश्र होता है। औदारिक शरीर वाले मनुष्य और तिर्यश्च वैक्रियलब्धि का प्रयोग कर वैक्रिय रूप बनाते हैं। उस लब्धि को समेटते समय जब तक औदारिक शरीर पूरा नहीं बनता है, तब तक औदारिक काययोग के साथ वैक्रिय का मिश्र होता है। ___ आहारक शरीर योगजन्य लब्धि है। यह चतुर्दश पूर्वधर मुनियों के ही हो सकता है । आहारक शरीर पूरा बनकर जो प्रवृत्ति करता है, वह आहारक काययोग कहलाता है। आहारक शरीर अपना काम सम्पन्न कर पुनः औदारिक शरीर में प्रवेश करता है। जब तक क्रिया सम्पन्न नहीं होती, तब तक औदारिक काययोग के साथ आहारक का मिश्र होता है । वह आहारक मिश्र काययोग कहलाता है। तैजस शरीर का स्वतंत्र रूप से कोई प्रयोग नहीं होता, इसलिए तैजस काययोग नहीं होता। उसका समावेश कार्मण काययोग में हो जाता है। एक भव से दूसरे भव में जाते समय जीव जब अनाहारक रहता है, उस समय होने वाले योग का नाम कार्मण काययोग है। केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में होने वाला योग भी कार्मण काययोग कहलाता है। इस प्रकार मन, वचन और काययोग के सब भेदों को मिलाने से योग के पन्द्रह भेद हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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