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वर्ग १, बोल ७ / २१ जीव त्वचा के द्वारा इष्ट, अनिष्ट की पहचान कर सकते हैं, रसना के द्वारा चख सकते हैं और घाण - नासिका के द्वारा सूंघ सकते हैं । इस वर्ग में आने वाले जीव हैं- चींटी, जलौका, जूं, लीख, खटमल आदि ।
चतुरिन्द्रिय जीवों में स्पर्शन, रसन और घ्राण चेतना के साथ देखने की क्षमता भी होती है । इनमें केवल सुनने की क्षमता — श्रोत्रेन्द्रिय शेष रहती है। मक्खी, मच्छर, पतंग, भ्रमर आदि जीव चतुरिन्द्रिय कहलाते हैं ।
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पंचेन्द्रिय जीवों की इन्द्रिय- क्षमता पूर्ण रूप से विकसित हो जाती है । स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु के साथ इनको सुनने के लिए कान भी मिल जाते हैं। ये जीव अन्य सब जीवों से उत्कृष्ट हैं, क्योंकि इनकी इन्द्रिय चेतना उनसे अधिक स्पष्ट और परिपूर्ण है । इस विभाग में पशु, पक्षी, नारक, देव और मनुष्य - इन सब प्राणियों का समावेश हो जाता है ।
एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी प्राणी संसारी प्राणी हैं । संसरणशील प्राणियों में विकास का जो तारतम्य है, उसको अभिव्यक्ति देने वाले अनेक बिन्दुओं में एक बिन्दु इन्द्रिय-चेतना है, इसी दृष्टि से इनके आधार पर जीवों का वर्गीकरण किया गया
है
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७. जीव के छह प्रकार हैं
१. पृथ्वीकायिक
२. अप्कायिक ३. तेजस्कायिक
६. सकायिक
सातवें बोल में जीव के छह प्रकार बताए गए हैं— पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक ।
ये छह प्रकार जैन आगमों में छह जीवनिकाय के रूप में प्रसिद्ध हैं । मुमुक्षु व्यक्ति के लिए इनका बोध होना बहुत जरूरी है । यदि वह इन जीव- निकायों को नहीं जानता है तो उसकी साधना का आधार क्या होगा ? 'पढमं नाणं तओ दया'पहले ज्ञान, फिर अहिंसा । ज्ञान के बिना अहिंसा का आचरण नहीं हो सकता । अहिंसा के राजपथ पर चरण बढ़ाने के लिए पृथ्वीकायिक आदि छहों जीव-निकायों को समझना बहुत जरूरी है ।
काय का अर्थ है शरीर । पथ्वी है जिन जीवों का शरीर. वे जीव पथ्वीकायिक
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४. वायुकायिक
५. वनस्पतिकायिक
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