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________________ ८०/ जैनतत्त्वविद्या प्रकम्पन होता है। व्यवदान व्यवदान का अर्थ है निर्जरण । यह तपस्या की निष्पत्ति है। तप के द्वारा जिन संस्कारों में प्रकम्पन शुरू हो जाता है, उनका भीतर रहना मुश्किल हो जाता है। संस्कार बाहर आने के लिए चेतना से विलग होते हैं। यही व्यवदान या निर्जरा है। अक्रिया अक्रिया का अर्थ है अकर्म । अकर्म होने की स्थिति में प्रवृत्ति या चंचलता समाप्त हो जाती है। यह स्थिति तब बनती है जब भीतर घुसे हुए विजातीय तत्त्व (संस्कार) पूरी तरह से बाहर आ जाते हैं। सिद्धि सिद्धि का अर्थ है सफलता । यह इस यात्रा का आखिरी पड़ाव है। इसमें ज्ञाताभाव और द्रष्टाभाव स्थिर हो जाते हैं। इस स्थिति को प्राप्त कर लेने के बाद जन्म और मृत्यु की परम्परा अपने आप छूट जाती है। एक दृष्टि से इन दस बिन्दुओं का स्वतन्त्र अस्तित्व है । हर बिन्दु अपने आप में मूल्यवान है । दूसरी दृष्टि से इनमें पांच बिन्दु कारण हैं और पांच कार्य हैं। जैसे श्रवण कारण है और ज्ञान उसका कार्य है। • विज्ञान कारण है और प्रत्याख्यान उसका कार्य है। • संयम कारण है और अनाश्रव उसका कार्य है। • तप कारण है और व्यवदान उसका कार्य है। • अक्रिया कारण है और सिद्धि उसका कार्य है। दूसरी अपेक्षा से विचार किया जाए तो इन दसों का आपस में सम्बन्ध है। एक से दूसरा, दूसरे से तीसरा और तीसरे से चौथा-इस प्रकार सब एक-दूसरे से जुड़े हैं। इन सबका समन्वित रूप ही जीवनयात्रा का आखिरी विराम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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