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________________ १५६ / जैनतत्त्वविद्या कार्मिकी बुद्धि का उदाहरण ___एक चोर किसी बनिए के घर चोरी करने गया। वहां उसने इस प्रकार सेंध लगाई कि कमल की आकृति बन गई। प्रातःकाल जब लोगों ने उस सेंध को देखा तो चोरी की बात भूल गए और कला की प्रशंसा करने लगे। उन लोगों में वह चोर भी था, जो प्रशंसा सुनकर खुश हो रहा था। वहां एक किसान खड़ा था। उसने कहा-भाई ! यह क्या बड़ी बात है? अपने काम में सभी कुशल होते हैं। किसान की बात चोर को बुरी लगी। वह एक दिन मौका पाकर किसान के खेत में पहुंचा और छुरा निकालकर उस पर वार करने लगा। किसान एकदम पीछे हट गया और बोला-भाई ! क्या बात है? मुझे मार क्यों रहे हो? चोर ने कहा- उस दिन तुमने मेरी लगाई हुई सेंध की प्रशंसा क्यों नहीं की? किसान सारी बात समझ गया। उसने अपने बचाव का उपाय सोचते हुए कहा—भाई ! मैंने तुम्हारी निन्दा कब की थी। मैनें तो कहा था कि अभ्यास से हर व्यक्ति अपने काम में कुशल हो जाता है। देखो, मेरे हाथ में ये मूंग के दाने हैं। तुम कहो तो मैं इन सबको एक साथ ऊर्ध्वमुख, अधोमुख या एक पार्श्व से गिरा दूं। चोर ने मूंग के दाने अधोमुख गिराने के लिए कहा। किसान ने वहां चादर बिछाकर दाने इस कुशलता से बिखेरे कि सब अधोमुख ही गिरे । चोर यह देख चकित रह गया। वह बोला-भाई ! तुम तो मुझसे भी अधिक कुशल हो चोर और किसान दोनों की कर्मजा बुद्धि इस उदाहरण से स्पष्ट होती है। पारिणामिकी बुद्धि का उदाहरण एक व्यक्ति ने श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किए। स्वदारसंतोष भी उनमें एक व्रत था। एक बार उसने अपनी पत्नी की सहेली को देखा। वह उसमें आसक्त हो गया। अपनी इस मनःस्थिति को न तो वह बदल सका और न ही व्यक्त कर सका। इससे वह खिन्न रहने लगा। एक दिन उसकी पत्नी ने बहुत आग्रह किया तो उसने अपना मन खोलकर रख दिया। श्रावक की पत्नी बहत समझदार थी। उसने सोचा- मेरे पति ऐसे विचारों में आयुष्य का बंध कर लेंगे तो इनकी दुर्गति हो जाएगी। कोई ऐसा उपाय करना चाहिए, जिससे इनका व्रत भंग न हो और ऐसे कलुषित विचार भी समाप्त हो जाएं। बहुत सोच-विचार कर वह अपने पति के पास जाकर बोली-आप दुःखी क्यों होते हैं ? मैंने अपनी सहेली से बात कर ली है। वह आज रात को आपके पास आ जायेगी। शर्त एक ही है कि वह अंधेरे में आएगी और उजाला होने से पहले लौट जाएगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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