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________________ वर्ग ४, बोल १२ / १५५ राजा ने समझ लिया कि हाथी मर गया। रोहक के बुद्धि-बल ने नटों को बचा लिया। वैनयिकी बुद्धि का उदाहरण किसी नगर में एक महात्मा रहता था। उसके दो शिष्य थे। दोनों में एक अविनीत था और दूसरा विनीत । एक बार दोनों कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने बहुत बड़े पदचिह्न देखे। अविनीत शिष्य बोला—इधर से कोई हाथी गया है। विनीत शिष्य ने सरलता के साथ कहा-मित्र ! ये हाथी के नहीं, हथिनी के पदचिह्न हैं । वह हथिनी बाईं आंख से कानी है, उस पर कोई रानी बैठी थी, जो गर्भवती है। थोड़ी दूर पुहंचने पर उन्होंने देखा---गांव से बाहर तालाब के किनारे ठाटबाट वाले किसी व्यक्ति का पड़ाव है । वहां कई तंबू बंधे हैं। एक तंबू के बाहर कानी हथिनी बंधी हुई है। ठीक उसी समय एक दासी तंबू से बाहर निकली और एक प्रभावशाली व्यक्ति से बोली-मंत्रीवर ! महाराज को सूचना दीजिए। महारानी ने राजकुमार को जन्म दिया है। विनीत शिष्य के चेहरे पर अपने कथन की सत्यता प्रमाणित होने की चमक थी। अविनीत शिष्य वहां कुछ बोल तो नहीं सका, पर उसका मन दुःख और आवेश से भर गया। गुरु के पास पहुंचते ही वह बरस पड़ा। उसने कहा-गुरुजी ! आप भी इतना पक्षपात रखते हैं, यह मुझे आज पता लगा है। महात्मा कुछ समझ नहीं पाया । उसने शान्त भाव से स्थिति की जानकारी कर अविनीत शिष्य से पूछा-तुमने कैसे जाना कि वे पांव हाथी के थे। वह लापरवाही से बोला-हाथी के बिना इतने बड़े पांव और किसके हो सकते थे। अब गुरु ने विनीत शिष्य से पूछा कि उसने सारी बातों की जानकारी कैसे की? शिष्य बोला---गुरुजी ! वे पदचिह्न उभरे-उभरे से थे। जिस रास्ते में पदचिह्न थे, वहां एक ओर से वृक्षों की टहनियां-पत्तियां खाई हुई थीं। हाथी पर सवारी करने वाले व्यक्ति तो राजा-रानी ही हो सकते हैं, यह मेरा अनुमान था। संभवतः रानी वहां लघुशंका के लिए नीचे उतरी थी। बैठते समय उसका हाथ धरती पर टिका। हाथ की रेखाओं को देखने से पता लग गया कि वह गर्भवती थी। दोनों शिष्यों की बात सुन महात्मा बोला—मैंने ये सब बातें इसको कब बताई थीं। पर इसने मेरी हर बात को विनम्रता से ध्यानपूर्वक सुना, उस पर मनन किया और अहंकार बढ़ने नहीं दिया। इसीलिए यह हर घटना प्रसंग का इतना सूक्ष्म विश्लेषण कर सकता है। यह इसकी वैनयिकी बुद्धि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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