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१४२ / जैनतत्त्वविद्या
अन्तर्गर्भित हो जाते हैं। पदार्थ और द्रव्य किसी अपेक्षा से भिन्न हैं। इसलिए इन्हें पर्यायवाची नहीं कहा जा सकता। भिन्नता का मानक बिन्दु है इनकी व्याख्या का आधार । पदार्थ की व्याख्या साधना-प्रधान है और द्रव्य की व्याख्या जागतिक है। उसमें साधना की दृष्टि से पुण्य-पाप, संवर-निर्जरा आदि का वर्णन उपलब्ध होता है और इसमें जगत् की गति, स्थिति आदि के संबंध में जानकारी मिलती है।
द्रव्य के छह प्रकार हैं। पांच अस्तिकाय हैं और एक काल है।
अस्तिकाय शब्द का प्रयोग जैनदर्शन में ही हुआ है, जबकि द्रव्य शब्द का व्यवहार अनेक दर्शनों में होता है। यह भी संभावना की जा सकती है कि द्रव्य शब्द जैनदर्शन में बाद में आया है। पहले अस्तिकाय शब्द ही व्यवहृत होता रहा है। अस्तिकाय की व्याख्या दूसरे वर्ग के प्रथम बोल में संक्षिप्त रूप से आ चुकी है। यहां उसे कुछ विस्तृत रूप से दिया जा रहा है।
द्रव्य शब्द के प्राचीन प्रयोग जैनदर्शन में उपलब्ध हैं, पर हैं दूसरे-दूसरे अर्थों में । जैसे—द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव।
नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव।
द्रव्य निक्षेप, द्रव्य नय आदि। पदार्थ अर्थ में द्रव्य शब्द का प्रयोग यहां कालान्तर में प्रचलित हुआ। इस स्वीकृति के बाद कालक्रम की दृष्टि से देखा जाए तो उसका सबसे प्राचीन प्रयोग उत्तराध्ययन सूत्र में मिलता है-'गुणाणमासओ दव्वं' । द्रव्य वास्तविक और काल्पनिक दोनों प्रकार का हो सकता है। जैसे-काल एक काल्पनिक द्रव्य है। पर अस्तिकाय वास्तविक ही है। अस्तिकाय का अर्थ है-अस्ति, अभूत, भविष्यति इति अस्तिकायः । जो है, था और होगा, वह अस्तिकाय है। इसे किसी परिभाषा में आबद्ध किया जाए तो वह शब्दावलि इस प्रकार हो सकती है—त्रैकालिक सत्ता वाला सावयव अर्थात् सप्रदेश पदार्थ अस्तिकाय है। वह पांच प्रकार का है
धर्मास्तिकाय-जीव और पुद्गल की गति में असाधारण सहयोग देने वाला सावयव द्रव्य।
अधर्मास्तिकाय-जीव और पुद्गल की स्थिति में असाधारण सहयोग देने वाला सावयव द्रव्य।
आकाशास्तिकाय-जीव और पुद्गल को अवकाश देने वाला सावयव द्रव्य ।
पुद्गलास्तिकाय-प्रत्यक्ष रूप में परिवर्तनशील अथवा वह सावयव पदार्थ, जिसमें अणुओं का मिलन और विघटन होता रहता है।
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