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________________ १३४ / जैनतत्त्वविद्या के चक्रव्यूह से निकल अपनी आवश्यकताओं को और अधिक सीमित करने का लक्ष्य रखता है । किसी राष्ट्र के सब नागरिक इस व्रत को स्वीकार कर लें तो अभाव और अतिभावजनित दुर्व्यवस्थाओं का अन्त हो सकता है। इस व्रत की भावना से समाजवाद सहजरूप से फलित हो जाता है। इसमें वस्तु-संयम और व्यवसाय-संयम दोनों का समावेश होता है। तीसरा गुणव्रत है अनर्थदण्डविरमण। इसके दो वाच्यार्थ हैं—निष्प्रयोजन हिंसा से दूर होना और अनर्थकारी पाप से दूर होना। एक श्रावक पर यह दायित्व आता है कि वह बिना प्रयोजन कोई गलत काम करे ही नहीं। प्रयोजनवश कोई सपाप आचरण करना पड़े तो उसमें भी उस प्रवृत्ति से अपना बचाव करे, जो किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के लिए अनिष्ट अथवा अहित का सम्पादन करने वाली हो । अन्तिम चार व्रत शिक्षाव्रत के रूप में प्रसिद्ध हैं । अणुव्रतों की साधना जीवन भर के लिए स्वीकृत की जा सकती है। किन्तु शिक्षाव्रत प्रायोगिक व्रत हैं। इनका अभ्यास बार-बार किया जाता है । इस दृष्टि से ये सावधिक होते हैं। शिक्षाव्रत चार हैं—सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास और यथासंविभाग। एक मुहूर्त (४८ मिनट) के लिए समता के अभ्यास का प्रयोग सामायिक व्रत है। इसका अभ्यास प्रतिदिन एक बार या अधिक बार भी किया जा सकता है। व्रत की सीमाओं को अधिक संक्षिप्त करने के लिए छोटे-बड़े सब प्रकार के प्रत्याख्यान करने का अवकाश जहां हो, उस व्रत को देशावकाशिक व्रत कहा गया है। परिपूर्ण पौषध व्रत से पहले सारे प्रत्याख्यान इस व्रत के अन्तर्गत आते हैं। एक दिन और रात के लिए सावध कामों का प्रत्याख्यान करना, उपवासपूर्वक विशेष धर्म जागरण करना प्रतिपूर्ण पौषधव्रत है। अपनी खान-पान आदि वस्तुओं में से संयमी पुरुषों के लिए विभाग करके देना यथासंविभाग व्रत का तात्पर्यार्थ है । इस व्रत का दूसरा नाम अतिथिसंविभाग भी है । जिस साधक के तिथि विशेष में सावध योग का त्याग न हो—जीवन पर्यन्त त्याग हो, वह अतिथि कहलाता है । यह शब्द साधु का वाचक है। श्रावक कहीं भी रहकर इस व्रत का अभ्यास कर सकता है । यद्यपि इस व्रत की अनुपालना साधु-साध्वियों की सन्निधि में ही हो सकती है। पर भावना का प्रयोग कभी भी और कहीं भी हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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