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९९८ । जैनतत्वविद्या निसर्ग और अधिगम।
किसी-किसी जीव के बिना किसी प्रयत्न के नैसर्गिक रूप से मिथ्यात्व क्षीण हो जाता है । अनादि काल से आत्मा से संश्लिष्ट कर्म पहाड़ी नदी में घिसकर गोल हुए पत्थरों की तरह अपने आप घिसकर दूर हो जाते हैं। सहज कर्मविलय से उपलब्ध सम्यक्त्व निसर्ग सम्यक्त्व कहलाता है।
गुरु के उपदेश अथवा किसी अन्य बाह्य निमित्त से मिलने वाला सम्यक्त्व अधिगम कहलाता है । सम्यक्त्व जीवन का एक विशिष्ट आयाम है। पर प्रश्न यह है कि इसकी प्राप्ति का प्रामाण्य क्या है ? कौन व्यक्ति सम्यक्त्वी है ? और कौन नहीं है? यह अवबोध कैसे हो सकता है ? निश्चयनय की दृष्टि से विचार किया जाए तो विशिष्ट ज्ञानी को छोड़कर कोई भी व्यक्ति अपने या दूसरे के सम्यक्त्व का साक्षी नहीं बन सकता। पर व्यवहारनय की अपेक्षा से उसके पांच लक्षण बतलाए गए हैं-शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । चौदहवें बोल में सम्यक्त्व के इन पांचों लक्षणों का उल्लेख है।
शम-क्रोध आदि कषायों का उपशम । संवेग-मोक्ष की अभिलाषा। निर्वेद-संसार से विरक्ति। अनुकम्पा-प्राणीमात्र के प्रति दयाभाव । आस्तिक्य-आत्मा, कर्म, कर्मफल आदि में विश्वास ।
सम्यक्त्व के इन पांचों लक्षणों को निम्नलिखित पद्य में सरलता से समझा जा सकता है
शान्त हैं आवेग सारे, शान्ति मन में व्याप्त है, मुक्त होने की हृदय में प्रेरणा पर्याप्त है। वृत्ति में वैराग्य, अन्तर्भाव में करुणा विमल,
अटल आस्था- ये सभी सम्यक्त्व के लक्षण सबल ।।
शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि सम्यक्त्व के दूषण हैं। दूषणों का परिहार करने वाला और लक्षणों को विस्तार देने वाला व्यक्ति अपने सम्यक्त्व को सुरक्षित और उज्ज्वल रखने में समर्थ हो सकता है।
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