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________________ ११६ / जैनतत्त्वविद्या है । यह दृष्टि जिस व्यक्ति की होती है, उपचार से वह व्यक्ति भी मिथ्यादृष्टि कहलाता है । जीव-अजीव आदि तत्त्वों पर सम्यक् श्रद्धा रखने पर भी किसी एक तत्त्व के प्रति संदेह रखने वाली दृष्टि सम्यक्मिथ्यादृष्टि है । उसके योग से वह व्यक्ति भी सम्यक् - मिथ्यादृष्टि हो जाता है I १२. सम्यक्त्व के पांच प्रकार हैं १. औपशमिक २. क्षायिक ३. क्षायोपशमिक ४. सास्वादन ५. वेदक T 1 जैन-दर्शन में दो शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण हैं - मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । मिथ्यात्व संसार में परिभ्रमण का हेतु है और सम्यक्त्व जीव को संसरण से मुक्ति की ओर ले जाता है । सामान्यतया संसार के प्राणी मिथ्यात्व दशा में जीते हैं। कोई भी प्राणी अपनी चेतना का ऊर्ध्वारोहण करता है, उसके लिए सम्यक्त्व दशा को उपलब्ध करना जरूरी है | चेतना के विकास और सम्यक्त्व का अविनाभावी संबंध है। जहां चेतना का विकास है, वहां सम्यक्त्व है और जहां सम्यक्त्व है वहां चेतना का विकास है कुछ व्यक्ति मिथ्यात्व दशा में ही अपने चैतन्य विकास के लिए अभियान शुरू कर देते हैं । उनमें जो कषाय की अल्पता, वृत्ति का अनाग्रहीपन, मोह का हल्कापन, सच्चरित्र के प्रति लगाव आदि होता है, उससे उनका रास्ता एक सीमा तक प्रशस्त हो जाता है । किंतु सम्यक्त्व को उपलब्ध किए बिना मोक्ष का आरक्षण पक्का नहीं होता । सम्यक्त्व का अर्थ है-तत्त्व के बारे में सही श्रद्धा । जो तत्त्व जैसा है, उसे उसी रूप में समझना । इस अर्थ में सम्यक्त्व एक दर्पण है । जिस प्रकार दर्पण में व्यक्ति या वस्तु का यथार्थ प्रतिबिम्ब पड़ता है, वैसे ही सम्यक्त्व के द्वारा जीव, अजीव आदि तत्त्वों का सही बोध होता है। उसके पांच प्रकार हैं । 1 औपशमिक दर्शन मोह की तीन प्रकृतियां - मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह तथा चारित्रमोह की चार प्रकृतियां - अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ - ये सातों प्रकृतियां जिस समय सर्वथा उपशान्त हो जाती हैं, उस समय जो सम्यक्त्व उपलब्ध होता है, वह औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है । औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही है। उसके बाद उसमें बदलाव हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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