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११० / जैनतत्त्वविद्या
शुभ और अशुभ | अशुभ प्रवृत्ति का सम्पूर्ण निरोध व्रत संवर है और शुभ प्रवृत्ति का संपूर्ण निरोध अयोग संवर है । जब तक सम्पूर्ण निरोध नहीं होता है, उसे अयोग संवर का अंश कहा जाता है। अयोग संवर की स्थिति में पहुंचने के तत्काल बाद जीव मुक्त हो जाता है ।
वैसे संवर के अनेक प्रकार बतलाए गए हैं, पर वे अलग-अलग विवक्षाएं हैं। संवर के बीस भेद काफी प्रसिद्ध हैं । प्रस्तुत संदर्भ में विवेचित पांच भेद मूल के हैं। जहां बीस भेदों की विवक्षा है, वहां पन्द्रह भेदों का समावेश व्रत संवर में हो जाता है।
बाह्य - ६
८. निर्जरा के बारह प्रकार हैं
१. अनशन
२. ऊनोदरी ३. भिक्षाचरी
आभ्यन्तर -६
४. रसपरित्याग
५.
कायक्लेश
६. प्रतिसंलीनता ।
७. प्रायश्चित्त
८. विनय
९. वैयावृत्त्य
नौ तत्त्वों में सातवां तत्त्व है निर्जरा। जैन सिद्धान्त दीपिका में निर्जरा तत्त्व को परिभाषित करने वाले दो सूत्र हैं
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१०. स्वाध्याय
११. ध्यान
१२. व्युत्सर्ग
'तपसा कर्मविच्छेदादात्मनैर्मल्यं निर्जरा' 'उपचारात्तपोऽपि'
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तपस्या के द्वारा कर्मों का विच्छेद होने पर आत्मा की जो आंशिक उज्ज्वलता होती है, वह निर्जरा है । इस परिभाषा के अनुसार तपस्या निर्जरा का कारण है कारण में कार्य का उपचार करने से तपस्या को भी निर्जरा कहा जाता है । उसके बारह भेद हैं। इस दृष्टि से तप के भी बारह भेद हैं । किन्तु मुख्य रूप से उसे दो भागों में विभक्त किया गया है
बाह्य तप और आभ्यन्तर तप ।
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