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वर्ग ३, बोल७/१०९
७. संवर के पांच प्रकार हैं१. सम्यक्त्व
४. अकषाय २. व्रत
५. अयोग ३. अप्रमाद मोक्ष के बाधक और साधक तत्त्वों की चर्चा में आश्रव को बाधक माना गया है और संवर एवं निर्जरा को साधक। संवर आत्मा की वह परिणति है, जिससे आश्रव का निरोध होता है। इसलिए यह आश्रव का प्रतिद्वन्द्वी या प्रतिपक्षी तत्त्व है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो संवर का अर्थ है-आत्मप्रदेशों का स्थिरीभूत होना। यह मोक्ष-मार्ग की आराधना का प्रकृष्ट हेतु है और आत्म-संयम करने से प्राप्त होता है। संवर के पांच भेद हैंसम्यक्त्व संवर
यथार्थ तत्त्वश्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है । जीव, अजीव आदि नौ तत्त्वों के बारे में सही श्रद्धा का होना और विपरीत श्रद्धा का त्याग करना—सम्यक्त्व संवर का स्वरूप है, इसे मिथ्यात्व आश्रव का प्रतिपक्षी माना गया है। व्रत संवर
यह अव्रत का प्रतिपक्षी तत्त्व है। इसके दो रूप हैं—देशवत और सर्वव्रत । सपाप प्रवृत्तियों का आंशिक त्याग देशव्रत संवर है और इनका जीवन भर के लिए सम्पूर्ण रूप से त्याग सर्वव्रत संवर है। अप्रमाद संवर
__ अध्यात्म के प्रति होने वाली सम्पूर्ण जागरूकता का नाम अप्रमाद है। इस स्थिति में व्यक्ति कोई पापकारी प्रवृत्ति नहीं कर सकता। अकषाय संवर
राग-द्वेषात्मक उत्ताप जितना कम होता है, उतना ही कषाय कम होता है। कषाय को सर्वथा क्षीण कर देना अकषाय संवर है । यह कषाय आश्रव का प्रतिपक्षी
अयोग संवर
योग का अर्थ है शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति । प्रवृत्ति का निरोध करना अयोग संवर है। प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है
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