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________________ १०६ / जैनतत्त्वविद्या ५. पाप के अठारह प्रकार हैं१. प्राणातिपात १०. राग २. मृषावाद ११. द्वेष ३. अदत्तादान १२. कलह ४. मैथुन १३. अभ्याख्यान ५. परिग्रह १४. पैशुन्य ६. क्रोध १५. परपरिवाद ७. मान १६. रति-अरति ८. माया १७. माया-मृषा ९. लोभ १८. मिथ्यादर्शनशल्य पुण्य का प्रतिपक्षी तत्त्व है पाप । पुण्य शुभ कर्म है। पाप अशुभ कर्म है। पुण्य शुभ या सत्प्रवृत्ति के द्वारा होता है । इसी प्रकार पाप अशुभ या असत्प्रवृत्ति के द्वारा होता है । जिस शुभ प्रवृत्ति के द्वारा शुभ कर्म (पुण्य)) का बन्धन होता है, उपचार से उसी को पुण्य कहा जाता है। इसी प्रकार जिस अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा अशुभ (पाप) का बन्धन होता है, उपचार से उस अशुभ प्रवृत्ति को पाप कह दिया जाता है। पापजनक प्रवृत्तियों के वर्गीकरण में प्रमुख रूप से पाप के अठारह प्रकार बतलाए गए हैं१. प्राणातिपात- प्राण-वधमूलक अशुभ प्रवृत्ति से बंधने वाला पाप कर्म। २. मृषावाद - असत्य-वचन रूप अशुभ प्रवृत्ति से बंधने वाल पाप कर्म। ३. अदत्तादान - अदत्त वस्तु के ग्रहण रूप अशुभ प्रवृत्ति से बंधने वाला पाप कर्म । ४. मैथुन - अब्रह्मचर्य के सेवन से बंधने वाला पाप कर्म । ५. परिग्रह - वस्तु-संग्रह या ममत्व रूप अशुभ प्रवृत्ति से बंधने वाला पाप कर्म। ६. क्रोध उत्तेजना से बंधने वाला पाप कर्म । ७. मान अभिमान से बंधने वाला पाप कर्म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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