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सम्पादकीय
धर्म जीवन-शुद्धि का निर्विकल्प साधन है। पर कौन-सा धर्म ? शुद्ध धर्म । अशुद्ध धर्म जीवन-शुद्धि का साधन कदापि नहीं हो सकता । गंदे पानी अथवा कीचड़ से गंदा कपड़ा साफ कैसे होगा। प्रश्न होगा, क्या धर्म भी अशुद्ध होता है ? धर्म अपने मौलिक स्वरूप में शुद्ध ही है, पर कालप्रवाह के साथ बहकर आए हुए बहुत-सारे अवांछनीय/विजातीय तत्व जब-तब उसकी गंगा-सी पावन और निर्मल धारा में घुलते-मिलते रहते हैं, उसे प्रदूषित करते रहते हैं । यह एक अपरिहार्य-सी स्थिति है। इसे सर्वथा नहीं टाला जा सकता । पर इसके उपरान्त भी धर्म का मौलिक स्वरूप अनन्त कालचक्र में भी सर्वथा विकृत और प्रदूषित नहीं हुआ, यह एक तथ्य है । तभी तो जीवनशुद्धि के निर्विकल्प साधन की अपनी गुणात्मकता/अर्हता तो वह किसी-न-किसी रूप में सुरक्षित रख पाया है। यह कैसे संभव हुआ ? यह संभव हुआ है समय-समय पर धर्म के विशिष्ट पुरोधाओं द्वारा उसके शोधन की दिशा में किए गए भगीरथ एवं सार्थक प्रयत्नों के चलते । वर्तमान सदी में यह सार्थक एवं महनीय प्रयत्न जिन कुछेक व्यक्तित्वों ने किया है, कर रहे हैं। उनमें एक प्रमुख नाम है - गणाधिपतिश्री तुलसी। इस प्रयत्न के कारण न केवल धार्मिक एवं आध्यात्मिक जगत् में ही, अपितु सार्वजनिक क्षेत्र में उनका नाम बहुचर्चित है । उनका यह सार्थक एवं सलक्ष्य प्रयत्न इतने व्यापक एवं बहुआयामी स्तर पर है कि इसे बीसवीं सदी की सफल धर्मक्रांति की संज्ञा देना अनुचित नहीं होगा। इस धर्मक्रांति के उद्देश्य रहे हैं० धर्म धर्म-ग्रन्थों एवं धर्मस्थानों की चारदीवारी से मुक्त होकर जन-जन
के दैनिक जीवन एवं जीवन-व्यवहार में प्रतिष्ठित हो। जातिवाद, वर्णवाद व सम्प्रदायवाद की संकीर्ण सीमाओं से बाहर निकले । उसका सार्वजनीन एवं सार्वभौम रूप प्रगट हो। वह अपनी सर्वजनहितायसर्वजनसुखाय गुणात्मकता को प्राप्त करे।। ० धार्मिकता की कसौटी मात्र क्रियाकांड एवं उपासना नहीं, अपितु शुद्ध
आचार एवं सात्विक विचार बनें। नैतिकता एवं मानवताविहीन धार्मिकता की स्थिति समाप्त हो। ० धर्म का सीधा सम्बन्ध भविष्य और परलोक से नहीं, अपितु वर्तमान से
जुड़े । जब भी, जिस क्षण भी उसकी आराधना की जाए उससे व्यक्ति
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