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स्वकथ्य
मनुष्य जन्म से छोटा या बड़ा नहीं होता। उसका कद उसके आचरण और व्यवहार से उठता और गिरता रहता है । जिस देश या समाज में आचरण के आधार पर व्यक्तित्व का माप नहीं होता, वहां सही और गलत के मानक भी निर्धारित नहीं होते । जिनके पास अपनी कोई स्वतंत्र सोच नहीं होती, वे नए मानकों का निर्धारण नहीं कर पाते । क्या भला है ? और वया बुरा ? यह अहसास जिनको परिस्पन्दित नहीं करता, वे लोग अपने ढंग से जीते हैं । उनको उनकी धारणाओं के व्यूह से बाहर निकाल पाना बहुत कठिन होता है । इस श्रेणी के लोगों को किसी की सीख नहीं लग पाती । वे एक ढर्रे की जिन्दगी जीते हैं और उसी में संतुष्ट रहते हैं ।
जिस देश की संस्कृति में आचरण के आधार पर व्यक्ति का मूल्यांकन होता है, वहां आचरण की पवित्रता या चारित्रिक उज्ज्वलता के लिए प्रशिक्षण भी दिया जाता है । प्रशिक्षण का एक पारम्परिक रूप है प्रवचन | इसे व्याख्यान, सत्संग, कथा आदि अनेक नामों से पहचाना जा जाता है । कुछ लोगों का अभिमत है कि उपदेश के द्वारा संसार को रूपान्तरित करने का प्रयास अथाह समुद्र के खारे पानी को बंद-बूंद कर मीठा करने का प्रयास है । इस धारणा के आधार पर उपदेश या प्रवचन की बहुत बड़ी सार्थकता नहीं है । किन्तु मेरा अनुभव कहता है कि सुनते-सुनते कभी मन पर ऐसी चोट होती है कि रूपान्तरण घटित हो जाता है। सूरज प्रतिदिन उदित और अस्त होता है । एक दिन के सूर्योदय ने राम भक्त हनुमान की चेतना को
कृत कर दिया । सुभद्रा के एक वाक्य ने उसके पति धन्यकुमार को संसार से विरक्त कर दिया । इसी प्रकार प्रवचन में कही गई कोई एक ही बात श्रोता के भीतर तक पहुंचकर उसके जीवन की दिशा को बदल सकती है ।
जन प्रतिबोध मेरी दैनिकचर्या का एक मुख्य अंग है । प्रवचन, संगीत, बातचीत, प्रश्नोत्तर आदि किसी न किसी उपक्रम के द्वारा मैं संपर्क में आने वाले लोगों को समझाने का प्रयास करता हूं । मेरे विनीत, समर्पित और जागरूक साधु-साध्वियां मेरे विचारों को संकलित और संगृहीत करने में संलग्न हैं। उनमें एक नाम मुनि धर्मरुचि का है । दुबला-पतला शरीर, पर संकल्प का धनी । कर्तव्यनिष्ठा और व्यवस्थित कार्यशैली । इन वर्षों में वह मेरे प्रवचनों को संकलित - सम्पादित करने का काम पूरी रुचि और निष्ठा के साथ कर रहा है ।
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