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• जब तक बहनों में जागृति नहीं आयेगी, उनका सुधार नहीं होगा,
तब तक देश का सुधार होना संभव नहीं है। (२०५) ० अलबत्ता आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना नैतिकता में सहयोग कम मिलता हैं, परन्तु आवश्यकताओं की पूर्ति होने से व्यक्ति नैतिक बन
ही जाएगा, इसमें मेरा विश्वास नहीं है । (२०६) ० व्रत आवश्यकताओं की पूर्ति होने और न होने से सम्बन्धित नहीं
है। उसका संबंध आत्मा से है, भावना से है । (२०६) ० विलासी व्यक्ति व्रती नहीं बन सकता । (१०६) ० हिंसा जीवन में घुली-मिली रही है। फिर भी वह जीवन का व्रत
नहीं बन सकी। व्रत अहिंसा है। उसे दूर रखकर मनुष्य मनुष्य भी
नहीं रह सकता। (२०७) ० जिस प्रकार भवन का आधार नींव है, वृक्ष की स्थिति जड़ है, उसी __प्रकार जीवन की नींव या जड़ संयम है । (२०९) ० नीति तब तक ही नीति है, जब तक वह संयम से अनुप्राणित है। __ संयम से कट जाने के पश्चात् वह अनीति बन जाती है। (२०९) • सुखमय और शांतिमय जीवन का एक मात्र आधार संयम है ।
(२०९) • वही जीवन सुखमय और शांतिमय हो सकता है, जो संयममय है ।
(२०९) • अलबत्ता आदमी के कर्म अच्छे और बुरे हो सकते हैं, उसका
आचरण और व्यवहार सत् और असत् हो सकता है, पर व्यक्ति तो घृणित और अस्पृश्य नहीं हो सकता । (२११) ० किसी को भी जाति, वर्ण,.......... के आधार पर अस्पृश्य मानना चिंतन का दारिद्रय है, मन का ओछापन है, मानवता पर कलंक का
टीका है ।(२११) ० आचरित धर्म का उपदेश ही दूसरों के लिए प्रेरणादायी होता है ।
(२१४) ० धर्म, संयम और व्रत का संबंध इहलोक-परलोक से नहीं, बल्कि • जीवन-विकास से है। (२१६) ० व्रताचरण से जीवन-शुद्धि की ही अपेक्षा रखी जा सकती है । ऐहिक
सुख-सुविधा की भावना रखना उपयुक्त नहीं । (२१६)
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मानवता मुसकाए
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