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व्युत्सर्ग-शरीर, कषाय आदि का विसर्जन करना व्युत्सर्ग है।
शरीर व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग), गण व्युत्सर्ग और भक्तपान व्युत्सर्ग द्रव्य व्युत्सर्ग है । कषाय, संसार और कर्म का विसर्जन भाव व्युत्सर्ग
व्रत संवर--पापकारी वृत्ति और अन्तर्जालसा-इन दोनों को सावद्यवृत्ति __ कहा जाता है। इनका त्याग करना व्रत (विरत) संवर है । यह छठे
गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान में होता है । शुभ योग-मन, वचन और काया की सत् प्रवृत्ति को शुभ योग कहते हैं ।
शुभ योग से अनिवार्य रूप से निर्जरा होती है। आनुषंगिक फल के रूप में शुभ कर्म (द्रव्य पुण्य) का बंध होता है । देखें- निर्जरा । प्रथम गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक शुभ योग की प्राप्ति है। देखें
गुणस्थान। श्रावक-हिंसा, असत्य आदि सावद्य--पापकारी प्रवति का आंशिक त्याग
करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव श्रावक कहलाता है। श्रावक पांचवें
गुणस्थान में अवस्थित होता है। देखें-गुणस्थान । श्रावक के व्रत (बारह व्रत)--पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत
के रूप में श्रावक के निम्न बारह व्रत बताए गए हैं
पांच अणुव्रत---१. अहिसा अणुव्रत २. सत्य अणुव्रत ३. अचौर्य अणुव्रत ४. ब्रह्मचर्य अणुव्रत ५. अपरिग्रह अणुव्रत ।
तीन गुणव्रत-१. दिग्परिमाण प्रत २. उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत ३. अनर्थदण्डविरमण व्रत ।
चार शिक्षाक्त-१. सामायिक व्रत २. देशावकाशिक व्रत
३. पौषधोपवास व्रत ४. यथासंविभाग व्रत । संवर-कर्म-आकर्षण में हेतुभूत आत्म-परिणाम को आश्रव कहते हैं । आश्रव
के निरोध को संवर कहा जाता है। उसके पांच भेद हैं-१. सम्यक्त्व
२. व्रत (विरति) ३. अप्रमाद ४. अकषाय ५. अयोग । सकाम निर्जरा- मोक्ष-प्राप्ति के उद्देश्य से की जानेवाली निर्जरा सकाम
निर्जरा है। देखें-निर्जरा, देखें-अकाम निर्जरा। सम्यक्त्व संवर~-यथार्थ तत्त्व-श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है। जीव, अजीव,
पुण्य, पाप आदि नी तत्त्वों के बारे में यथार्थ श्रद्धा का होना और
अयथार्थ श्रद्धा का त्याग करना सम्यक्त्व संवर है। साध-पूर्ण संयमी/पूर्ण व्रती-महाव्रती को साधु कहते हैं। नमोक्कार मंत्र
(नमस्कार महामंत्र) का पांचवां पद उनके लिए प्रयुक्त है। देखें--महावत।
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मानवता मुसकाए
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