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अरहंत - देखें - तीर्थंकर ।
अशुभ योग - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को योग कहते हैं । प्रवृत्ति दो तरह की होती है सत् और असत् । असत् प्रवृत्ति को अशुभ योग कहते हैं । अशुभ योग अशुभ बंधन ( पाप ) का हेतु है । देखें – शुभ योग |
आगम - जैनधर्म के मूल शास्त्र आगम कहलाते हैं । इनमें तीर्थंकर महावीर की वाणी के आधार पर गणधरों, ज्ञानी स्थविरों द्वारा गुम्फित सूत्रों-ग्रंथों को समाविष्ट किया गया है । गणधरों द्वारा बनाए गए आगम 'अंग' तथा विशिष्ट ज्ञानियों द्वारा बनाए गए आगम 'उपांग' आदि कहलाते हैं । देखें - तीर्थंकर, गणधर । श्वेताम्बर परम्परा में स्थानकवासी एवं तेराथ द्वारा ३२ आगम स्वीकृत हैं - ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ४ छेद, १ आवश्यक ।
अन्य श्वेतांबर परम्पराएं ४८ या ८४ आगम भी मानती हैं ।
आचार्य -- धर्मसंघ की सारणा वारणा एवं शिक्षा-दीक्षा की दृष्टि से निर्धारित सात पदों में से एक पद । सूत्र के अर्थ की वाचना देना और गण का सर्वोपरि संचालन आचार्य का कार्य है । उपाध्याय, स्थविर आदि शेष छह पदों पर नियुक्तियां करना आचार्य का ही अधिकार क्षेत्र है । तीर्थंकर की अनुपस्थिति में उनके प्रतिनिधि के रूप में वे धर्मसंघ का अध्यात्मिक अनुशासन और मार्ग दर्शन करते हैं । नमोक्कार मंत्र ( नमस्कार महामंत्र ) का तीसरा पद उनके लिए प्रयुक्त है । - सावद्य प्रवृत्ति या हिंसा ।
आरंभ
आराधक -- जो साधक अपने स्वीकृत संकल्पों - त्याग - प्रत्याख्यानों को दृढ़ता से निभाता है तथा छद्मस्थता के कारण उनमें ज्ञात या अज्ञात रूप में किसी प्रकार की स्खलना ( दोष सेवन) होने पर प्रायश्चित्त स्वीकार करता है, वह आराधक है ।
आवश्यक सूत्र – जैन आगमों में एक आगम, जिसमें प्रतिदिन करणीय छह आवश्यक क्रियाओं का विधि-विधान उपलब्ध है । छह आवश्यक क्रियाएं हैं - १. सामायिक २. चतुर्विंशति स्तव ३. वंदना ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान | उपशम - उदयावलिका में प्रविष्ट मोहकर्म का क्षय हो जाने पर अवशिष्ट
मोहकर्म का सर्वथा अनुदय होता है, उसे उपशम कहते हैं । आठ
कर्मों में उपशम केवल आत्मा की अवस्था देखें --मोहकर्म |
मोहकर्म का की स्थिति
ही होता है । इससे बननेवाली मात्र अन्तर्मुहूर्त होती है ।
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मानवता मुसकाए
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