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मैं मानता हूं, ब्रह्मचर्य अपने-आपमें एक कठिन तप है। एक गीत में मैंने कहा है----
ब्रह्मचर्य को काम करारो, समझ-विवेक-पूर्व स्वीकारो, स्वीकारो तो पार उतारो॥ ० अपनी वृत्त्यां साथे लड़णो, बाथे मत्त मतंग पकड़णो।
चढणो खड़ग-धार परबारो ॥ ब्रह्मचर्य ॥ ० दस परकोटां री पत लांघी, कुण-कुण भ्रष्ट हुया व्रत भांगी।
अरणक, नन्दी, आर्द्र कुमारो ॥ ब्रह्मचर्य ॥ ० बड़ा-बड़ा व्रतधारी जोगी,
कामी कुटिल भयंकर भोगी।
'नहिं अपुत्र गति' मिलग्यो स्हारो ॥ ब्रह्मचर्य ॥ ब्रह्मचर्य की साधना में साधक को अपनी वत्तियों के साथ युद्ध करना पड़ता है। यह साधना मदोन्मत्त हाथी को अपनी भुजाओं में भरने के समान है, नंगी तलवार पर चलने के तुल्य है। इस साधना में वे ही साधक सफल हो पाते हैं, जो स्थान-संयम, वाणी-संयम आदि दस बातों का बराबर ध्यान रखें। जो इनके प्रति उपेक्षा बरतते है, इनका अतिक्रमण करते हैं, वे किसी भी क्षण अपनी साधना से च्युत हो सकते हैं। अरणककुमार, नन्दीसेन, आर्द्र कुमार जैसे अनेक नाम इस कथन की पुष्टि में बताए जा सकते हैं। वस्तुतः साधक का मन जब कमजोर हो जाता है, तब फिर उसका ब्रह्मचर्य की साधना में उपस्थित रहना कठिन हो जाता है। भले ही वह कितना ही उग्र तपस्वी क्यों न हो । बहुधा तो ऐसी स्थिति में वह कोई बहाना बनाकर अपनी ब्रह्मचर्य की साधना को खण्डित कर देता है। कहा जाता है कि अट्टासी हजार तापस गृहवासी हो गए। उन्होंने कई वर्षों तक जंगल में खड़ेखड़े तपस्या की। इस अवधि में बेलें उनके शरीर पर छा गईं। पक्षियों ने वृक्ष समझकर घोंसले बना लिए । ऐसे तपस्वियों ने किसी से मुन लिया--- 'अपुत्रस्य गति स्ति, स्वगों नैवच नैवच ।' बम, तत्काल तपस्वी जीवन छोड़कर गृहवासी बन गए। मैं समझता हूं, 'अपुत्र की गति नहीं होती' यह तो मात्र एक वहाना था । मुलत: तो साधना से उनका विश्वास डोल चुका था। उनके मन में शिथिलता आ गई थी। ऐसी स्थिति में 'अपुत्रस्य गति स्ति, .......' की बात का निमित्त मिल गया और अपनी कमजोरी पर आवरण डालते हुए वे गृहस्थ बन गए । बन्धुओ ! आप ही बताएं, 'अपुत्रस्य गति स्ति,
तवेसु वा उत्तम बंभचेरम्
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