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________________ अपेक्षा महसूस की गई कि उसका व्यवस्थित संकलन-संपादन हो, जिससे कि उसकी सुरक्षा निश्चित की जा सके। पर यह कार्य जितना महत्त्वपूर्ण और आवश्यक है, उतना सरल तो नहीं। कोई प्रौढ़ साहित्यमर्मज्ञ ही इस कार्य-योजना को सही रूप में क्रियान्वित कर सकता है। इस सन्दर्भ में मैं अपनी अर्हता-अनर्हता से अपरिचित नही हूं। पर पूज्य गुरुदेव ने मुझे इस कार्य में जब नियोजित किया है तो उनके आदेश का हर स्तर पर पालन करना मेरा परम कर्तव्य है। वैसे मेरी यह बहुत स्पष्ट समझ है कि गुरु आशीर्वाद एवं कृपा की शक्ति अचिन्त्य होती है। वह जिसे प्राप्त होती है, उसके लिए स्वयं की अर्हता-अनहता/क्षमता-अक्षमता की बात महत्त्वपूर्ण होकर भी बहुत गौण हो जाती है। इस माने में मैं अपने-आपको अत्यन्त सौभाग्यशाली मानता हूं कि पूज्य गुरुदेव ने मुझे यह कार्य करने का आशीर्वाद दिया है। निश्चित ही इस निमित्त मेरे जैसे एक सामान्य-से विद्यार्थी को साहित्य की वर्णमाला सीखने का अवसर मिला है। पूज्य गुरुदेव मेरे जीवन-निर्माता हैं, संयम-रत्न प्रदाता हैं। उनके चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण कर मैं अपने-आपको अत्यन्त गौरवान्वित महसूस करता हूं। सर्वस्व-समर्पण की भूमिका में अब शाब्दिक समर्पण की बात औपचरिकता से ज्यादा कुछ नहीं हो सकती। बस, उनके इंगित/दृष्टि की सम्यक् आराधना करता हुआ ज्ञान-दर्शन-चारित्र के क्षेत्र में एक-एक कदम आगे बढ़ता रहूं, यही काम्य है। महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी वर्षों से गणाधिपति पूज्य गुरुदेव के साहित्य-संपादन के मंगल अनुष्ठान में लगी हुई हैं । 'प्रवचन पाथेय' ग्रन्थमाला के कार्य को भी वे इस अनुष्ठान से अलग कर कैसे देख सकती हैं। इस कार्य को सम्पादित करने में उनका सहयोगात्मक भाव, प्रेरक प्रोत्साहन व अनुभवपूर्ण उपयोगी सुझाव मुझे सहज रूप से उपलब्ध हैं। इसके लिए मैं उनके प्रति अत्यंत विनम्र भाव से कृतज्ञता व्यक्त करता हूं। ___संघ-परामर्शक मुनिश्री मधुकरजी जैसे धीर-गंभीर व्यक्तित्व का मुझे अयाचित संरक्षण प्राप्त है, यह भी मेरे जीवन का एक सौभाग्य है। उनका शब्दात्मक और उससे भी अधिक अशब्दात्मक मार्ग-दर्शन मेरे जीवन-विकास की विभिन्न राहों की आलोकित करनेवाला है। इस ग्रन्थमाला के संपादनकार्य में भी उनका मार्ग-दर्शन मुझे प्राप्त होता रहा है, हो रहा है। इस संकलन की कार्य-संपन्नना पर उनको कृतज्ञ भाव से वंदना निवेदन करता 'प्रवचन पाथेय' ग्रन्थमाला के १८ पुष्प अब तक जन-जन के हाथों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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